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पत्र ४१३ ]
विविध पत्र आदि संग्रह-२७वाँ वर्ष
पैदा करती है । इस प्रकार प्रायः होना योग्य ही है; क्योंकि सिद्धांत-ज्ञान' तो जीवके किसी अत्यंत उज्वल क्षयोपशम होनेपर और सद्गुरुके वचनकी आराधनासे उद्भूत होता है । ' सिद्धांत-ज्ञान'का कारण 'उपदेश-ज्ञान' है । पहिले सद्गुरु अथवा सन्शास्त्रसे जीवमें इस उपदेश-ज्ञानका दृढ़ होना योग्य है, जिस उपदेश-ज्ञानका फल वैराग्य और उपशम है । वैराग्य और उपशमका बल बढ़नेसे जीवमें स्वाभाविक क्षयोपशमकी निर्मलता होती है, और यह सहज हीमें सिद्धांत-ज्ञान होनेका कारण होता है। यदि जीवमें असंग-दशा आ जाय तो आत्मस्वरूपका समझना सर्वथा सुलभ हो जाता है; और उस असंग-दशाका हेतु वैराग्य-उपशम है; जो फिर फिरसे जिनागममें तथा वेदांत आदि बहुतसे शास्त्रोंमें कहा गया है-विस्तारसे गया है । इसलिये निःसंशयरूपसे वैराग्य-उपशमके कारण योगवासिष्ठ आदि साथ विचारने चाहिये ।
___ हमारे पास आनेमें किसी किसी प्रकारसे तुम्हारे परिचयी श्री.''का मन रुकता था, और उस तरहकी रुकावट होना स्वाभाविक है; क्योंकि प्रारब्धके वशसे हमें ऐसा व्यवहारका उदय रहता है कि हमारे विषयमें सहज ही शंका उत्पन्न हो जाय; और उस प्रकारके व्यवहारका उदय देखकर प्रायः हमने धर्मसंबंधी संगमें लौकिक-लोकोत्तर प्रकारसे परिचय नहीं किया, जिससे लोगोंको हमारे इस व्यवहारके समागमका विचार करनेका कम अवसर उपस्थित हो। तुमसे अथवा श्री."से अथवा किसी दूसरे मुमुक्षुसे यदि हमने कोई भी परमार्थकी बात की हो तो उसमें परमार्थके सिवाय कोई दूसरा कारण नहीं है। इस संसारके विषम और भयंकर स्वरूपको देखकर हमें उसकी निवृत्तिके विषयमें बोध हुआ है, जिस बोधसे जीवमें शांति आकर समाधि-दशा हुई है। वह बोध इस जगत्में किसी अनंत पुण्यके योगसे ही जीवको प्राप्त होता है—ऐसा महात्मा पुरुष फिर फिरसे कह गये हैं । इस दुःषमकालमें अंधकार प्रगट होकर बोधका मार्ग आवरण-प्राप्त होने जैसा हो गया है। उस कालमें हमें देह-योग मिला, इससे किसी तरह खेद होता है, फिर भी परमार्थसे उस खेदका समाधान किया है । परन्तु उस देह-योगमें कभी कभी किसी मुमुक्षुके प्रति लोक-मार्गके प्रतीकारको फिर फिरसे कहनेका मन होता है; जिसका संयोग तुम्हारे और श्री......."के संबंधमें सहज ही हो गया है। परन्तु उससे तुम हमारे कथनको मान्य करो, इस आग्रहके लिये कुछ भी कहना नहीं होता। केवल हितकारी जानकर ही उस बातका आग्रह हुआ करता है, अथवा होता है-यदि इतना लक्ष रहे तो किसी तरह संगका फल मिलना संभव है।
जैसे बने तैसे जीवको अपने दोषके प्रति लक्ष करके दूसरे जीवोंके प्रति निर्दोष दृष्टि रखकर प्रवृत्ति करना, और जिससे वैराग्योपशमका आराधन हो वैसा करना, यह स्मरण करने योग्य पहिली बात है।
(२) एक चैतन्यमें यह सब किस तरह घटता है !