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श्रीमद् राजचन्द्र
[पत्र ४१३
योगवासिष्ठ आदि ग्रंथका बाँचन होता हो तो वह हितकारी है । जिनागममें 'मिन भिन्न' आत्मा मानकर परिणाममें अनंत आत्मायें' कहीं है; और वेदांतमें उसे भिन्न भिन्न ' कहकर जो सर्वत्र चेतन-सत्ता दिखाई देती है वह एक ही आत्माकी है, और आत्मा एक ही है' ऐसा प्रतिपादन किया गया है । ये दोनों ही बातें मुमुक्षु पुरुषको जरूर विचार करने योग्य हैं, और यथाशक्ति इन्हें विचारकर निश्चय करना योग्य है, यह बात निःसन्देह है । परन्तु जबतक प्रथम वैराग्य और उपशमका बल जीवमें दृदरूपसे न आया हो, तबतक उस विचारसे चित्तका समाधान होनेके बदले उलटी चंचलता ही होती है, और उस विचारका निर्णय नहीं होता । तथा चित्त विक्षिप्त होकर बादमें यथार्थरूपसे वैराग्य-उपशमको धारण नहीं कर सकता । इसलिये ज्ञानी-पुरुषोंने जो इस प्रश्नका समाधान किया है कि उसे समझनेके लिये इस जीवमें वैराग्य-उपशम और सत्संगके बलको हालमें तो बढ़ाना ही योग्य है-इस प्रकार विचार करके जीवमें वैराग्य आदि बल बढ़ानेके साधनोंका आराधन करनेके लिये नित्य प्रति विशेष पुरुषार्थ करना योग्य है।
विचारकी उत्पत्ति होनेके पश्चात् वर्धमानस्वामी जैसे महात्मा पुरुषने भी फिर फिरसे विचार किया कि इस जीवके अनादि कालसे चारों गतियोंमें अनंतानंतबार जन्म-मरण होनेपर भी, अभी वह जन्म-मरण आदि स्थिति क्षीण नहीं होती। उसका अब किस प्रकारसे क्षय करना चाहिये ! और ऐसी कौनसी भूल इस जीवकी रहती आई है कि जिस भूलका अबतक परिणमन होता रहा है ! इस प्रकारसे फिर फिर अत्यंत एकाग्रतासे सद्बोधके वर्धमान परिणामसे विचार करते करते जो भूल भगवान्ने देखी है, वह जिनागममें जगह जगह कही है। जिस भूलको समझकर मुमुक्षु जीव उससे रहित हो सके । जीवकी भूल देखनेपर तो वह अनंत विशेष लगती है, परन्तु सबसे पहिले जीवको सब भूलोंकी बीजभूत भूलका विचार करना योग्य है, जिस भूलके विचार करनेसे सब भूलोंका विचार होता है, और जिस भूलके दूर होनेसे सब भूलें दूर होती हैं । कोई जीव कदाचित् नाना प्रकारकी भूलोंका विचार करके उस भूलसे छूटना चाहे, तो भी वह करना योग्य है, और उस प्रकारकी अनेक भूलोंसे छूटनेकी इच्छाका मूल ही भूलसे छूटनेका सहज कारण होता है।।
शास्त्रमें जो ज्ञान बताया गया है, वह ज्ञान दो प्रकारसे विचार करने योग्य हैः-एक उपदेशज्ञान और दूसरा सिद्धांत-ज्ञान । 'जन्म-मरण आदि केशयुक्त इस संसारका त्याग करना ही योग्य है। अनित्य पदार्थोंमें विवेकी पुरुषको रुचि नहीं करनी चाहिये; माता, पिता, स्वजन आदि सबका स्वार्थरूप संबंध होनेपर भी, यह जीव उस जंजालका ही आश्रय लिया करता है, यही उसका अविवेक है। प्रत्यक्षरूपसे इस संसारके त्रिविध तापरूप मालूम होते हुए भी मूर्ख जीव उसीमें विश्रांति चाहता है। परिग्रह, आरंभ और संग-ये सब अनर्थोके हेतु हैं', इत्यादि शिक्षा उपदेश-शान है। 'आत्माका अस्तित्व, नित्यता, एकत्व अथवा अनेकत्व, बंध आदि भाव, मोक्ष, आत्माकी सब प्रकारको अवस्था, पदार्थ और उसकी अवस्था' इत्यादि बातोंको जिस प्रकारसे दृष्टांतोंसे सिद्ध किया जाता है, वह सिद्धांत-ज्ञान है।
मुमुक्षु जीवको प्रथम तो वेदांत और जिनागम इन सबका अवलोकन उपदेशकी ज्ञान-प्राप्तिके लिये ही करना चाहिये, क्योंकि सिद्धांत-बान' जिनागम और वेदांतमें भिन्न भिन्न दिखाई देता है, और उस मिमताको देखकर मुमुक्षु जीव अंदेशा-शंका करता है, और यह शंका चित्तमें असमाधि