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पत्र ४१४ ] विविध पत्र आदि संग्रह-२७वाँ वर्ष
३७७ ' मैं परिग्रहकी सर्वथा निवृत्ति करता हूँ,' इस प्रकारका व्रत होनेपर भी वस्त्र, पात्र और पुस्तकका संबंध देखा जाता है-इन्हें अंगीकार किया ही जाता है। उसका, परिग्रहकी सर्वथा निवृत्तिके कारणका किसी : प्रकारसे रक्षणरूप होनेसे ही विधान किया है और उससे परिणाममें अपरिग्रह ही होता है। मूर्छा-रहित* भावसे नित्य आत्म-दशाकी वृद्धि होनेके लिये ही पुस्तकका अंगीकार करना बताया है । तथा इस कालमें शरीरके संहननकी हीनता देखकर पहिले चित्तकी स्थितिके समभाव रहनेके लिये ही वखा पात्र आदिका ग्रहण करना बताया है। अर्थात् जब आत्म-हित देखा तो परिग्रह रखनेकी आज्ञा दी है । यथपि क्रियाकी प्रवृत्तिको प्राणातिपात कहा है, परन्तु भावकी दृष्टिसे इसमें अन्तर है । परिग्रह बुद्धिसे अथवा प्राणातिपात बुद्धिसे इसमेंका कुछ भी करनेके लिये कभी भगवान्ने आज्ञा नहीं दी । भगवान्ने जहाँ सर्वथा निवृत्तिरूप पाँच महाव्रतोंका उपदेश दिया है, वहाँ भी दूसरे जीवोंके हितके लिये ही उनका उपदेश दिया है और उसमें उसके त्यागके समान दिखाई देनेवाले अपवादको भी आत्म-हितके लिये ही कहा है-अर्थात् एक परिणाम होनेसे जिसका त्याग कहा है, उसी क्रियाका ग्रहण कराया है।
मैथुन-त्यागमें जो अपवाद नहीं है, उसका कारण यह है कि उसका राग-द्वेषके बिना भंग नहीं हो सकता; और राग-द्वेष आत्माको अहितकारी है; इससे भगवान्ने उसमें कोई अपवाद नहीं बताया । नदीका पार करना राग-द्वेषके बिना हो सकता है; पुस्तकका ग्रहण करना भी राग-द्वेषके बिना होना संभव है; परन्तु मैथुनका सेवन राग-द्वेषके बिना नहीं हो सकता; इसलिये भगवान्ने इस व्रतको अपवादरहित कहा है; और दूसरे व्रतोंमें आत्माके हितके लिये ही अपवाद कहा है । इस कारण जिस तरह जीवका-संयमका-रक्षण हो उसी तरह कहनेके लिये जिनागमकी रचना की गई है।
पत्र लिखने अथवा समाचार आदि कहनेका जो निषेध किया है, उसका भी यही हेतु है। जिससे लोक-समागमकी वृद्धि न हो, प्रीति-अप्रीतिके कारणकी वृद्धि न हो, त्रियों आदिके परिचयमें आनेका प्रयोजन न हो, संयम शिथिल न हो जाय, उस उस प्रकारका परिग्रह बिना कारण ही स्वीकृत न हो जाय-इस प्रकारके सम्मिलित अनंत कारणोंको देखकर पत्र आदिका निषेध किया है, परन्तु वह भी. अपवादसहित है। जैसे बृहत्कल्पमें अनार्य-भूमिमें विचरनेकी मना की है, और वहाँ क्षेत्रकी मर्यादा बाँधी है; परन्तु ज्ञान, दर्शन, और संयमके कारण वहाँ भी विचरनेका विधान किया गया है । इसी अर्थके ऊपरसे यह मालूम होता है कि यदि कोई ज्ञानी-पुरुष दूर रहता हो-उनका समागम होना मुश्किल हो, और यदि पत्र-समाचारके सिवाय दूसरा कोई उपाय न हो तो फिर आत्म-हितके सिवाय दूसरी सब प्रकारकी बुद्धिका त्याग करके उस प्रकारके ज्ञानी-पुरुषकी आज्ञासे अथवा किसी मुमुक्षु-सत्संगीकी सामान्य आज्ञासे वैसा करनेका जिनागमसे निषेध नहीं होता, ऐसा मालूम होता है। इसका कारण यह है कि जहाँ पत्र-समाचारके लिखनेसे आत्म-हितका नाश होता हो वहीं उसका निषेध किया गया है। तथा. जहाँ पत्र-समाचार न होनेसे आत्म-हितका नाश होता हो, वहाँ पत्र-समाचारका निषेध किया हो, यह जिनागमसे बन सकता है या नहीं, वह अब विचार करने योग्य है।
इस प्रकार विचार करनेसे जिनागममें ज्ञान, दर्शन और संयमकी रक्षाके लिये पत्र-समाचार आदि व्यवहारके भी स्वीकार करनेका समावेश होता है । परन्तु किसी कालके लिये, किसी महान्
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