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श्रीमद् राजचन्द्र
[पत्र ३८१ बोधविषयक भ्रांति प्रायः नहीं होती, परन्तु बोधके विशेष परिणामका अनवकाश होता है, ऐसा तो स्पष्ट दिखाई देता है । और उससे आत्मा अनेकबार व्याकुल होकर त्यागका सेवन करती थी; फिर भी उपार्जित कर्मकी स्थितिको सम परिणामसे, अदीनतासे, अन्याकुलतासे सहना करना, यही ज्ञानी-पुरुषोंका मार्ग है, और हमें भी उसका ही सेवन करना है-ऐसी स्मृति होकर स्थिरता रहती है। अर्थात् आकुलता आदि भावकी होती हुई विशेष घबराहट समाप्त होती थी।
जबतक सारे दिन निवृत्तिके ही योगमें काल न व्यतीत हो तबतक सुख न मिले इस प्रकारकी हमारी स्थिति है । 'आत्मा आत्मा', 'उसका विचार', 'ज्ञानी पुरुषकी स्मृति ', ' उसके माहात्म्यकी कथा-वार्ता', 'उसके प्रति अत्यंत भक्ति', 'उनके अनवकाश आत्म-चारित्रके प्रति मोह -यह हमको अभी आकर्षित किया ही करता है, और उस कालका सेवन करते हैं।
पूर्वकालमें जो जो काल ज्ञानी-पुरुष समागममें व्यतीत हुआ है, वह काल धन्य है; वह क्षेत्र अत्यंत अत्यंत धन्य है; उस श्रवणको, श्रवणके कर्ताको और उसमें भक्तिभावयुक्त जीवोंको त्रिकाल दंडवत् हो । उस आत्मस्वरूपमें भक्ति, चिंतन, आत्म-व्याख्यावाली ज्ञानी-पुरुषकी वाणी, अथवा ज्ञानीके शास्त्र अथवा मार्गानुसारी ज्ञानी-पुरुषके सिद्धांतकी अपूर्वताको हम अति भक्तिपूर्वक प्रणाम करते हैं ।
अखंड आत्म-धुनकी एकतार उस बातको हमें अभी प्रवाहपूर्वक सेवन करनेकी अत्यंत आतुरता रहा करती है; और दूसरी ओरसे इस प्रकारका क्षेत्र, इस प्रकारका लोक-प्रवाह, इस प्रकारका उपाधियोग और दूसरी उस उस तरहकी बातोंको देखकर विचार मू की तरह हो जाता है । ईश्वरेच्छा !
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पेटलाद, भाद्रपद वदी ६, १९४९
१. जिसके पाससे धर्म माँगना, उस प्राप्त किये हुएकी पूर्ण चौकसी करनी—इस वाक्यका स्थिर चित्तसे विचार करना चाहिये।
२. जिसके पाससे धर्म माँगना, यदि उस पूर्ण ज्ञानीकी पहिचान जीवको हुई हो तो उस प्रकारके ज्ञानियोंका सत्संग करना, और यदि सत्संग हो जाय तो उसे पूर्ण पुण्यका उदय समझना । उस सत्संगमें उस परम ज्ञानीके उपदेश किये हुए शिक्षा-बोधको ग्रहण करना—जिससे कदाग्रह, मतमतांतर, विश्वासघात, और असत्वचन इत्यादिका तिरस्कार हो- अर्थात् उन्हें ग्रहण नहीं करना, मतका आग्रह छोड़ देना । आत्माका धर्म आत्मामें ही है । आत्मत्व-प्राप्त पुरुषका उपदेश किया हुआ धर्म आत्म-मार्गरूप होता है; बाकीके मार्गके मतमें नहीं पड़ना ।
३. इतना होनेके बाद सत्संग होनेपर भी यदि जीवसे कदामह, मतमतांतर आदि दोष न छोड़े जा सकें, तो फिर उनसे छूटनेकी आशा भी न करनी चाहिये । हम स्वयं किसीको आदेश-बात अर्थात् • ऐसा करो', यह नहीं कहते । बारम्बार पूँछो तो भी वह बात स्मृतिमें रहती है । हमारे संगमें आये हुए किन्हीं जीवोंको अभीतक भी हमने ऐसा नहीं कहा कि इस प्रकार चलो या यह करो । यदि कुछ कहा होगा तो वह केवल शिक्षा-बोधके रूपमें ही कहा होगा।