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२७वाँ वर्ष
बम्बई, कार्तिक सु.९शुक्र.१९५० " सिरपर राजा है " इतने वाक्यके ऊहापोह (विचार) से गर्भ-श्रीमंत श्रीशालिभद्र, उसी समयसे स्त्री आदिके परिचयके त्याग करनेका प्रारंभ करते हुए।
___ यह देखकर श्रीधनाभद्रके मुखसे वैराग्यके स्वाभाविक वचन उद्भव होते हुए कि " नित्य प्रति एक एक स्त्रीका त्याग करके अनुक्रमसे वह शालिभद्र बत्तीसों स्त्रियोंका त्याग करना चाहता है। इस प्रकार शालिभद्र बत्तीस दिनतक काल-शिकारीका विश्वास करता है, यह महान् आश्चर्य है।"
यह सुनकर शालिभद्रकी बहिन और धनाभद्रकी पत्नी धनाभद्रके प्रति इस प्रकार सहज वचन कहती हुई कि " आप जो ऐसा कहते हो, यद्यपि वह हमें मान्य है, परन्तु आपको भी उस प्रकारसे त्याग करना कठिन है ।" यह सुनकर चित्तमें किसी प्रकारसे क्लेशित हुए बिना ही श्रीधनाभद्र उस ही समय त्यागकी शरण लेते हुए, और श्रीशालिभद्रसे कहते हुए कि तुम किस विचारसे कालका विश्वास करते हो? यह सुनकर, जिसका चित्त आत्मरूप हो गया है ऐसा वह श्रीशालिभद्र
और धनाभद्र इस प्रकारसे गृह आदिको छोड़कर संसारका त्याग करते हुए कि " मानों किसी दिन उन्होंने अपना कुछ किया ही नहीं।"
इस प्रकारके सत्पुरुषके वैराग्यको सुनकर भी यह जीव बहुत वर्षों के आग्रहसे कालका विश्वास कर रहा है, वह कौनसे बलसे करता होगा- यह विचारकर देखना योग्य है ।
३९४, बम्बई, मंगसिर सुदी ३, १९५० वाणीका संयम करना श्रेयरूप है, परन्तु व्यवहारका संबंध इस तरहका रहता है कि यदि सर्वथारूपसे उस प्रकारका संयम रक्खें तो समागममें आनेवाले जीवोंको वह क्लेशका हेतु हो, इसलिये बहुत करके यदि प्रयोजनके सिवाय भी संयम रक्खा जाय, तो उसका परिणाम किसी तरह श्रेयरूप आना संभव है।
जीवके मूदभावका फिर फिरसे, प्रत्येक क्षणमें, प्रत्येक समागममें विचार करनेमें यदि सावधानी न रखनेमें आई तो इस प्रकार जो संयोग बना है, वह भी वृथा ही है।
३९५ बम्बई, पौष वदी १४ रवि. १९५० हालमें विशेषरूपसे नहीं लिखा जाता । उसमें उपाधिकी अपेक्षा चित्तका संक्षेपभाव विशेष कारणरूप है । (चित्तकी इच्छारूपमें किसी प्रवृत्तिका संक्षिप्त हो जाना—न्यून हो जाना—उसे यहाँ संक्षेपभाव लिखा है।)
हमने ऐसा अनुभव किया है कि जहाँ कहीं भी प्रमत्त-दशाहो वहाँ आत्मामें जगत्-प्रत्ययी कामका