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श्रीमद् राजचन्द्र
[पत्र ३८३
तो यदि किसी विकल्पको उत्पन्न करनेवाली ज्ञानीकी उन्मत्त आदि भावयुक्त चेष्टा प्रत्यक्ष देखनेमें आये, तो भी दूसरी दृष्टि के निश्चयके बलके कारण वह चेष्टा अविकल्परूप ही होती है । अथवा ज्ञानी पुरुषकी चेष्टाका कोई अगम्यपना ही इस प्रकारका है कि वह अधूरी अवस्थासे अथवा अधूरे निश्चयसे जीवको विभ्रम और विकल्पका कारण होता है । परन्तु वास्तविकरूपमें तथा पूर्ण निश्चय होनेपर वह विभ्रम
और विकल्प उत्पन्न होने योग्य नहीं है, इसलिये इस जीवको जो ज्ञानी-पुरुषके प्रति अधूरा निश्चय है, यही इस जीवका दोष है।
ज्ञानी-पुरुष सम्पूर्ण रीतिसे अज्ञानी-पुरुषसे चेष्टारूपसे समान नहीं होता, और यदि हो तो फिर वह ज्ञानी ही नहीं है, इस प्रकारका निश्चय करना, वह ज्ञानी-पुरुषके निश्चय करनेका यथार्थ कारण है । फिर भी ज्ञानी और अज्ञानी-पुरुषमें किसी इस प्रकारसे विलक्षण कारणोंका भेद है कि जिससे ज्ञानी और अज्ञानीका किसी प्रकारसे एकरूप नहीं होता । अज्ञानी होनेपर भी जो जीव ज्ञानीका स्वरूप मनवाता हो, उसका विलक्षणतासे निश्चय किया जाता है; इसलिये प्रथम ज्ञानीपुरुषकी विलक्षणताका ही निश्चय करना योग्य है। और यदि उस विलक्षण कारणका स्वरूप जानकर ज्ञानीका निश्चय होता है, तो फिर कचित् अज्ञानीके समान जो जो ज्ञानी-पुरुषकी चेष्टा देखनेमें आती है, उस विषयमें निर्विकल्पता होती हैऔर नहीं तो ज्ञानी-पुरुषकी वह चेष्टा उसे विशेष भाक्ति और स्नेहका कारण होती है।
प्रत्येक जीव अर्थात् यदि ज्ञानी-अज्ञानी समस्त अवस्थाओंमें समान ही हों तो फिर ज्ञानीअज्ञानीका भेद नाममात्रका भेद रह जाता है; परन्तु वैसा होना योग्य नहीं है । ज्ञानी और अज्ञानीपुरुषमें अवश्य ही विलक्षणता होनी चाहिये । जिस विलक्षणताके यथार्थ निश्चय होनेपर जीवको ज्ञानीपुरुष समझमें आता है, जिसका थोडासा स्वरूप यहाँ बता देना योग्य है । मुमुक्षु जीवको ज्ञानी और अज्ञानी-पुरुषकी विलक्षणता, उनकी अर्थात् ज्ञानी-अज्ञानी पुरुषकी दशाद्वारा ही समझमें आती है। उस दशाकी विलक्षणता जिस प्रकारसे होती है, उसे बता देना योग्य है । जीवकी दशाके दो भाग हो सकते हैं:-एक मूलदशा और दूसरी उत्तरदशा ।
बम्बई, भाद्रपद १९४९ यदि अज्ञान-दशा रहती हो और जीवने भ्रम आदि कारणसे उसे ज्ञान-दशा मान ली हो, तो देहको उस उस प्रकारके दुःख पड़नेके प्रसंगोंमें अथवा उस तरहके दूसरे कारणोंमें जीव देहकी साताको सेवन करनेकी इच्छा करता है, और वैसे ही बर्ताव करता है । यदि सच्ची ज्ञान-दशा हो तो उसे देहके दुःख-प्राप्तिके कारणोंमें विषमता नहीं होती, और उस दुःखको दूर करनेकी इतनी अधिक चिंता भी नहीं होती।
३८४ बम्बई, भाद्रपद वदी १९४९ जिस प्रकार इस आत्माके प्रति दृष्टि है, उस प्रकारकी दृष्टि जगत्की सर्व आत्माओंके प्रति है। जिस प्रकारका लेह इस आत्माके प्रति है, उस प्रकारका स्नेह सर्व आत्माओंके प्रति है। जिस