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· भीमद राजवन्द्र
[पत्र ३७४, ३७५
होता है, वहीं सब प्रकारकी आशाकी समाधि होकर जीवके स्वरूपसे जीवित रहा जाता है। जिस वस्तुकी कोई भी मनुष्य इच्छा करता है, वह उसकी प्राप्तिकी भविष्यमें ही इच्छा करता है, और इस प्राप्तिकी इच्छारूप आशासे ही उसकी कल्पना जीवित रहती है और वह कल्पना प्रायः करके कल्पना ही रहा करती है । यदि जीवको वह कल्पना न हो और ज्ञान भी न हो, तो उसकी दुःखकारक भयंकर स्थितिका अकथनीय हो जाना संभव है।
सब प्रकारकी आशा-और उसमें भी आत्माके सिवाय दूसरे अन्य पदार्थोंकी आशामें, समाधि किस प्रकारसे प्राप्त हो, यह कहो !
३७४ बम्बई, द्वितीय आषाढ़ सुदी ६ बुध. १९४९ रक्खा हुआ कुछ रहता नहीं, और छोड़ा हुआ कुछ जाता नहीं-इस प्रकार परमार्थ विचार करके किसीके प्रति दीनता करना अथवा विशेषता दिखाना योग्य नहीं है। समागममें दीनभाव नहीं आना चाहिये।
३७५ बम्बई, द्वितीय आषाढ वदी ६, १९४९ श्रीकृष्ण आदिकी क्रिया उदासीन जैसी थी। जिस जीवको सम्यक्त्व उत्पन्न हो जाय, उसे उसी समय सब प्रकारकी सांसारिक क्रियायें न रहें, यह कोई नियम नहीं है। हाँ, सम्यक्त्व उत्पन्न हो जानेके बाद सांसारिक क्रियाओंका रसरहित हो जाना संभव है। प्रायः करके ऐसी कोई भी क्रिया उस जीवकी नहीं होती जिससे परमार्थमें भ्रांति उत्पन्न हो; और जबतक परमार्थमें भ्रांति न हो, तबतक दूसरी क्रियाओंसे सम्यक्त्वको बाधा नहीं आती । इस जगत्के लोग सर्पको पूजते हैं, परन्तु वे वास्तविक पूज्य-बुद्धिसे उसे नहीं पूजते, किन्तु भयसे पूजते हैं-भावसे नहीं पूजते; और इष्टदेवको लोग अत्यंत भावसे पूजते हैं। इसी प्रकार सम्यकदृष्टि जीव इस संसारका जो सेवन करता हुआ दिखाई देता है, वह पूर्वमें बाँधे हुए प्रारब्ध-कर्मसे ही दिखाई देता है-वास्तविक दृष्टि से भावपूर्वक उस संसारमें उसे कोई भी प्रतिबंध नहीं होता, वह केवल पूर्वकर्मके उदयरूप भयसे ही है होता । जितने अंशसे भावप्रतिबंध न हो, उतने अंशसे ही उस जीवके सम्यक्दृष्टिपना होता है। ___ अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभका सम्यक्त्वके सिवाय नाश होना संभव नहीं है, ऐसा जो कहा जाता है वह यथार्थ है । संसारी पदार्थोंमें जीवको तीव्र स्नेहके बिना क्रोध, मान, माया और लोभ नहीं होते, जिससे जीवको संसारका अनंत अनुबंध हो । जिस जीवको संसारी पदार्थोंमें तीव्र स्नेह रहता हो, उसे किसी प्रसंगमें भी अनंतानुबंधी चतुष्कमेंसे किसीका भी उदय होना संभव है; और जबतक उन पदार्थोंमें तीन स्नेह हो, तबतक जीव अवश्य ही परमार्थ-मार्गवाला नहीं होता । परमार्यमार्ग उसे कहते हैं कि जिसमें अपरमार्थका सेवन करता हुआ जीव सब प्रकारसे, सुखमें अथवा दुःखमें कायर हुआ करे । दुःखमें कायरता होना तो कदाचित् दूसरे जीवोंको भी संभव है, परन्तु संसार-मुखकी प्राप्तिमें भी कायरता होना-उस सुखका अच्छा नहीं लगना-उसमें नीरसता होना-- यह परमार्थ-मागी पुरुषके ही होता है।