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३४६ भीमद् राजचन्द्र
[पत्र ३६९ ___ हमारे समागमका अंतराय जानकर चित्तको प्रमादका अवकाश देना योग्य नहीं, परस्पर भाईयोंके समागमको अव्यवस्थित होने देना योग्य नहीं, निवृत्तिके क्षेत्रके प्रसंगको न्यून होने देना योग्य नहीं, कामनापूर्वक प्रवृत्ति करना उचित नहीं-ऐसा विचारकर जैसे बने तैसे अप्रमत्तताका, परस्परके समागमका, निवृत्तिके क्षेत्रका और प्रवृत्तिकी उदासीनताका आराधन करना चाहिये।
__ जो प्रवृत्ति यहाँ उदयमें है, वह इस प्रकारकी है कि उसे दूसरे किसी मार्गसे चलनेपर भी छोड़ी नहीं जा सकती—वह सहन ही करने योग्य है। इसलिये उसका अनुसरण करते हैं, फिर भी स्वस्थता तो अव्याबाध स्थितिमें जैसीकी तैसी ही है ।
आज यह हम आठवाँ पत्र लिखते हैं । इसे तुम सब जिज्ञासु भाईयोंके बारम्बार विचार करनेके लिये लिखा है। चित्त इस प्रकारके उदयवाला कभी कभी ही रहता है। आज उस प्रकारका अनुक्रमसे उदय होनेसे उस उदयके अनुसार लिखा है। जब हम भी सत्संगकी तथा निवृत्तिकी कामना रखते हैं, तो फिर यह तुम सबको रखनी योग्य हो तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है । जब हम भी व्यवहारमें रहते हुए अल्पारंभको और अल्प परिग्रहको, प्रारब्ध-निवृत्तिरूपसे चाहते हैं, तो फिर तुम्हें उस तरह बर्ताव करना योग्य हो, इसमें कोई संशय करना योग्य नहीं । इस समय ऐसा नहीं सूझता कि समागम होनेके संयोगका नियमित समय लिखा जा सके ।
३६९ बम्बई, ज्येष्ठ सुदी १५ भौम. १९४९ जीव तुं शीद शोचना धरे १ कृष्णने कर, होय ते करे,
जीव तुं शीद शोचना धरे ? कृष्णने करवं होय ते करे । 'पूर्वमें ज्ञानी-पुरुष हो गये हैं, उन ज्ञानियोंमें बहुतसे ज्ञानी-पुरुष सिद्धि-योगवाले भी हो गये हैं, यह जो लौकिक-कथन है वह सच्चा है या झूठा'! यह आपका प्रश्न है; और ' यह सच्चा मालूम होता है', ऐसा आपका अभिप्राय है तथा यह साक्षात् देखनेमें नहीं आता', यह आपकी जिज्ञासा है।
कितने ही मार्गानुसारी पुरुष और अज्ञान-योगी पुरुषोंमें भी सिद्धि-योग होता है । प्रायः करके वह सिद्धि-योग उनके चित्तकी अत्यंत सरलतासे अथवा सिद्धि-योग आदिको अज्ञान-योगसे स्फुरणा प्रदान करनेसे प्रवृत्ति करता है ।
सम्यक्दृष्टि पुरुष-जिनके चौथा गुणस्थान होता है-जैसे ज्ञानी-पुरुषोंके कचित् सिद्धि होती है, और कचित् सिद्धि नहीं होती । जिनके होती है, उनको उसके प्रगट करनेकी प्रायः इच्छा नहीं होती; और प्रायः करके जब इच्छा होती है तब उस समय होती है, जब जीव प्रमादके वश होता है। और यदि उस प्रकारकी इच्छा हुई तो वह सम्यक्त्वसे गिर जाता है। प्रायः पाँचवें और छठे गुणस्थानमें भी उत्तरोत्तर सिद्धि-योग विशेष संभव होता जाता है; और वहाँ भी यदि प्रमाद आदिको योगसे जीव सिद्धि में प्रवृत्ति करे तो उसका प्रथम गुणस्थानमें आ जाना संभव है। ..सातवें, आठवें, नवमें और दशवें गुणस्थानमें, प्रायः करके प्रमादका अवकाश कम होता है। ग्यारहवें गुणस्थानमें सिद्धि-योगका लोभ संभव होनेके कारण, वहाँसे प्रथम गुणस्थानमें आ जाना संभव है।