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पत्र ३६९ ३७०,] विविध पत्र आदि संग्रह-२६वाँ वर्ष
बाकी जितने सम्यक्त्वके स्थानक हैं, और जहाँतक आत्मा सम्यक्-परिणामी है, वहाँतक उस एक भी योगमें त्रिकालमें भी जीवकी प्रवृत्ति होना संभव नहीं है।
सम्यग्ज्ञानी पुरुषोंसे लोगोंने जो सिद्धि-योगके चमत्कार जाने हैं, वे सब ज्ञानी पुरुषद्वारा किये हुए संभव नहीं मालूम होते, वे सिद्धि-योग स्वभावसे ही प्रगटित हुए रहते हैं। दूसरे किसी कारणसे ज्ञानी-पुरुषमें वह योग नहीं कहा जाता।
मार्गानुसारी अथवा सम्यग्दृष्टि पुरुषके अत्यंत सरल परिणामसे बहुतसी बार उनके कहे हुए वचनके अनुसार बात हो जाती है। जिसका योग अज्ञानपूर्वक है, उसके उस आवरणके उदय होनेपर, अज्ञान प्रगट होकर, वह सिद्धि-योग अल्प कालमें ही फल दे देता है। किन्तु ज्ञानी पुरुषसे तो वह केवल स्वाभाविकरूपसे प्रगट होनेपर ही फल देता है, किसी दूसरी तरहसे नहीं।
जिस ज्ञानीद्वारा स्वाभाविक सिद्धि-योग प्रगट होता है, वह ज्ञानी पुरुष, जो हम करते हैं उस तरहके, तथा उसी प्रकारके दूसरे अनेक तरहके चारित्रके प्रतिबंधक कारणोंसे मुक्त होता हैजिन कारणोंसे आत्माका ऐश्वर्य विशेष स्फुरित होकर मन आदि योगमें सिद्धिके स्वाभाविक परिणामको प्राप्त करता है । कहीं ऐसा भी मानते हैं कि किसी प्रसंगसे ज्ञानी-पुरुषद्वारा भी सिद्धि-योग प्रगट किया जाता है, परन्तु वह कारण अत्यंत बलवान होता है। और वह भी सम्पूर्ण ज्ञान-दशाका कार्य नहीं है । हमने जो यह लिखा है, वह बहुत विचार करनेपर समझमें आयेगा।।
हमारी बाबत मार्गानुसारीपना कहना योग्य नहीं है। अज्ञान-योगीपना तो जबसे इस देहको धारण किया तभीसे नहीं है, ऐसा मालूम होता है । सम्यक्दृष्टिपना तो अवश्य संभव है । किसी भी प्रकारके सिद्धि-योगको सिद्ध करनेका हमने कभी भी समस्त जीवनमें अल्प भी विचार किया हो, ऐसा याद नहीं आता; अर्थात् साधनसे उस प्रकारका योग प्रगट हुआ हो, यह मालूम नहीं होता । हाँ, आत्माकी विशुद्धताके कारण यदि कोई उस प्रकारका ऐश्वर्य हो तो उसका अभाव नहीं कहा जा सकता । वह ऐश्वर्य कुछ अंशमें संभव है। फिर भी यह पत्र लिखते समय इस ऐश्वर्यकी स्मृति हुई है, नहीं तो बहुत कालसे यह बात स्मरणमें ही नहीं, तो फिर उसे प्रगट करनेके लिये कभी भी इच्छा हुई हो, यह नहीं कहा जा सकता, यह स्पष्ट बात है।
तुम और हम कुछ दुःखी नहीं है। जो दुःख है वह तो रामके चौदह वर्षोके दुःखका एक दिन भी नहीं, पांडवोंके तेरह वर्षोंके दुःखकी एक घड़ी भी नहीं, और गजसुकुमारके ध्यानकी एक पल भी नहीं; तो फिर हमको इस अत्यंत कारणको कभी भी बताना योग्य नहीं । तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये । जो हो मात्र उसे देखते रहो-इस प्रकार निश्चय रखनेका विचार करो; उपयोग करो और 'सावधानीसे रहो । यही उपदेश है।
३७० बम्बई, प्रथम आषाढ वदी ३ रवि. १९१९ गतवर्ष मंगसिर महीनेमें जबसे यहाँ आना हुआ, उस समयसे उपाधि-योग उत्तरोत्तर विशेषाकार ही होता आया है, और प्रायः करके वह उपाधि-योग विशेष प्रकारके उपयोगसे सहन करना पड़ा है।