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८५ लोक-अलोक रहस्य प्रकाश ] विविध पत्र आदि संग्रह-२३वाँ वर्ष
१८३ और दूसरे तुम्हारे समान मंडलके लोग धर्मकी इच्छा करते हो; यदि यह सबकी अंतरात्माकी इच्छा है तब तो परम कल्याणरूप है । मुझे तुम्हारी धर्म-अभिलाषाकी यथार्थता देखकर संतोष होता है ।
जनसमूहके भाग्यकी अपेक्षासे यह काल बहुत ही निकृष्ट है । अधिक क्या कहूँ ! इस बातका एक अंतरात्मा ज्ञानी ही साक्षी है।
लोक-अलोक रहस्य प्रकाश
(१) बम्बई, फाल्गुन वदी १, १९४६ लोकको पुरुषके आकारका वर्णन किया है, क्या तुमने इसके रहस्यको कुछ समझा है ? क्या तुमने इसके कारणको कुछ समझा है, क्या तुम इसके समझानेकी चतुराईको समझे हो ? ॥ १॥
यह उपदेश शरीरको लक्ष्य करके दिया गया है, और इसे ज्ञान और दर्शनकी प्राप्तिके उद्देशसे कहा है । इसपर मैं जो कहता हूँ वह सुनो, नहीं तो क्षेम-कुशलका लेना देना ही ठीक है ॥२॥
(२) क्या करनेसे हम सुखी होते हैं, और क्या करनेसे हम दुःखी होते हैं ! हम स्वयं क्या हैं, और कहाँसे आये हैं ! इसका शीघ्र ही अपने आपसे जवाब पूँछो ॥१॥
जहाँ शंका है वहाँ संताप है; और जहाँ ज्ञान है वहाँ शंका नहीं रह सकती । जहाँ प्रभुकी भक्ति है वहाँ उत्तम ज्ञान है, और गुरु भगवान्द्वारा ही प्रभुकी प्राप्ति की जा सकती है ॥१॥
___ गुरुको पहिचाननेके लिये अंतरंगमें वैराग्यकी आवश्यकता है, और यह वैराग्य पूर्वभाग्यके उदयसे ही प्राप्त हो सकता है । यदि पूर्वकालीन भाग्यका उदय न हो तो वह सत्संगद्वारा मिल सकता है, और यदि सत्संगकी प्राप्ति न हुई तो फिर यह किसी दुःखके पड़नेपर प्राप्त होता है ॥२॥
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लोक अलोक रहस्यप्रकाश
लोक पुरुष संस्थाने करो, एनो भेद तमे कई लयो ? एनुं कारण समन्या काई, के समन्याव्यानी चतुराई १ ॥ १ ॥ शरीरपरथी ए उपदेश, शान दर्शने के उद्देश, जेम जणावो शुणिये तेम, कांतो लईए दईए क्षेम ॥२॥
[ करवाथी पोते सुखी ? शं करवाथी पोते दुःखी ? पोते शं? क्याथी छे आप ? एनो मागो शीघ्र जबाप ॥१॥
न्या शंका त्या गण संताप, शान तहां शंका नहिं स्थाप; प्रभुभक्ति त्या उत्तम शान, प्रभु मेळववा गुरु भगवान ॥१॥ गुरु ओळखवा घट वैराग्य, ते उपजवा पूर्वित भाग्य; तेम नहीं तो कई सत्संग, तेम नहीं तो कई दुःखरंग ॥२॥