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श्रीमद् राजवन्द्र
[पत्र ३०८, ३०९
ईश्वरेच्छा शब्दको भी अर्थान्तरसे समझना योग्य है । ईश्वरेच्छारूप आलंबन, यह आश्रयरूप ऐसी भक्तिको ही योग्य है । निराश्रय ज्ञानीको तो सभी कुछ समान है। अथवा ज्ञानी सहज-परिणामी है; सहज-स्वरूपी है; सहज-स्वभावसे स्थित है; सहज-स्वभावसे प्राप्त उदयको भोगता है; सहज-स्वभावसे जो होता है सो होता है, जो नहीं होता सो नहीं होता; वह कर्त्तव्यरहित है; कर्त्तव्यभाव उसीमें लय हो जाता है; इसलिए तुम्हें ऐसा जानना चाहिये कि उस ज्ञानीके स्वरूपमें प्रारब्धके उदयकी सहजप्राप्ति अधिक योग्य है । जिसने ईश्वरेच्छाके विषयमें किसी प्रकारसे इच्छा स्थापित की है, उसे इच्छावान कहना योग्य है । ज्ञानी इच्छारहित है या इच्छासहित, ऐसा कहना भी नहीं बनता, वह तो केवल सहज-स्वरूप है।
३०८ बम्बई, ज्येष्ठ सुदी १० रवि. १९४८ ईश्वर आदिके संबंधमें जो निश्चय है, उस विषयमें हालमें विचारका त्याग करके सामान्यरूपसे समयसारका पढ़ना योग्य है; अर्थात् ईश्वरके आश्रयसे हालमें धीरज रहता है, वह धीरज उसके विकल्पमें पड़ जानेसे रहना कठिन है।
निश्चयसे अकर्ता, और व्यवहारसे कर्ता इत्यादि व्याख्यान जो समयसारमें है, वह विचारने योग्य है, परन्तु यह व्याख्यान ऐसे ज्ञानीसे समझना चाहिये कि जिसके बोधसंबंधी दोष निवृत्त हो गये हैं।
जो है वह........स्वरूप, समझने तो योग्य ऐसे ज्ञानीसे है कि जिसे निर्विकल्पता प्राप्त हो गई है उसीके आश्रयसे जीवके दोष नष्ट होकर उसकी प्राप्ति होती है, और वह समझमें आता है।
छह मास संपूर्ण हुए तबसे, जिसे परमार्थके प्रति एक भी विकल्प उत्पन्न नहीं हुआ ऐसे श्री...........को नमस्कार है ।
३०९ बम्बई ज्येष्ठ वदी १० शुक्र. १९४८ जिसकी प्राप्तिके पश्चात् अनंतकालकी याचकता दूर होकर सर्व कालके
लिये अयाचकता प्राप्त होती है, ऐसा जो कोई भी हो
- तो उसे हम तरण-तारण मानते हैं-उसीको भजो. मोक्ष तो इस कालमें भी प्राप्त हो सकता है अथवा होता है, परन्तु उस मुक्तिका दान करनेवाले पुरुषकी प्राप्ति परम दुर्लभ है; अर्थात् मोक्ष दुर्लभ नहीं, दाता दुर्लभ है।
संसारसे अरुचि प्राप्त किये हुए तो बहुत काल हो गया है; तथापि अभी संसारका प्रसंग विश्रान्तिको प्राप्त नहीं होता, यह एक प्रकारका महान् क्लेश रहा रहता है।
हालमें तो निर्बल होकर अपनेको श्रीहरिके हाथमें सौंपे देते हैं।
हमें तो कुछ भी करनेके लिये मन नहीं होता, और लिखनेके लिये भी मन नहीं होता, कुछ कुछ वाणीसे प्रवृत्ति करते हैं, उसमें भी मन नहीं होता! केवल आत्मरूप मौन और तत्संबंधी प्रसंगमें ही मन रहता है, और संग तो इससे भिन्न प्रकारका ही रहता है।