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श्रीमद् राजचन्द्र
[पत्र ३५८ निवृत्ति, सत्संग आदि साधनोंको इस कालमें परम दुर्लभ जानकर, पूर्वके पुरुषोंने इस कालको ' हुंडा अवसर्पिणी' काल कहा है; और यह बात स्पष्ट भी है । प्रथमके तीन साधनोंका संयोग तो कहीं भी दूसरे किसी कालमें प्राप्त हो जाना सुगम था, परन्तु सत्संग तो सभी कालमें दुर्लभ ही मालूम होता है; तो फिर इस कालमें तो वह सत्संग कहाँसे सुलभ हो सकता है ! प्रथमके तीन साधनोंको भी किसी रातिसे जीव इस कालमें पा जाय, तो भी धन्य है । कालसंबंधी तीर्थकरकी वाणीको सत्य करनेके लिये हमें इस प्रकारका उदय रहता है, और वह समाधिरूपसे सहन करने योग्य है। आत्मस्वरूप.
(२) बम्बई, फाल्गुन वदी १४, १९४९ इसके साथ मणिरत्नमाला तथा योगकल्पद्रुम पढ़नेके लिये भेजे हैं । जो कुछ बाँधे हुए कर्म हैं, उनको भोगे बिना कोई उपाय नहीं है । चितारहित परिणामसे जो कुछ उदयमें आये, उसे सहन करना, इस प्रकारका श्रीतीर्थकर आदि ज्ञानियोंका उपदेश है ।
३५८
बम्बई, चैत्र सुदी १, १९४९
समता रमता उरधता, ज्ञायकता मुखमास;
वेदकता चैतन्यता, ए सब जीवविलास । जिस तीर्थंकरदेवने स्वरूपस्थ आत्मस्वरूप होकर, वक्तव्यरूपसे-जिस प्रकारसे वह आत्मा कही जा सकती है उस प्रकारसे-उसे अत्यंत यथायोग्य कहा है, उस तीर्थकरको दूसरी सब प्रकारकी अपेक्षाओंका त्याग करके हम नमस्कार करते हैं।
पूर्वमें बहुतसे शास्त्रोंका विचार करनेसे, उस विचारके फलमें सत्पुरुषमें जिसके वचनसे भक्ति उत्पन्न हुई है, उस तीर्थकरके वचनको हम नमस्कार करते हैं।
बहुत प्रकारसे जीवका विचार करनेसे, वह जीव आत्मरूप पुरुषके बिना जाना जाय, यह संभव नहीं, इस प्रकारकी निश्चल श्रद्धा उत्पन्न करके उस तीर्थकरके मार्ग-बोधको हम नमस्कार करते हैं।
भिन्न भिन्न प्रकारसे उस जीवका विचार करनेके लिये—उस जीवके प्राप्त होनेके लिये योग आदि अनेक साधनोंके प्रबल परिश्रम करनेपर भी जिसकी प्राप्ति न हुई, ऐसा वह जीव, जिसके द्वारा सहज ही प्राप्त हो जाता है-वही कहनेका जिसका उद्देश है-उस तीर्थकरके उपदेश-वचनको हम नमस्कार करते हैं
- (अपूर्ण)
इस जगत्में जिसमें वाणीसहित विचार-शक्ति मौजूद है, ऐसा मनुष्य-प्राणी कल्याणका विचार करनेके लिये सबसे अधिक योग्य है। फिर भी प्रायः जीवको अनंतबार मनुष्यता प्राप्त होनेपर भी वह कल्याण सिद्ध नहीं हुआ, जिससे अबतक जन्म-मरणके मार्गका आराधन करना पड़ा है । अनादि इस लोकमें जीवोंकी संख्या अनंत-कोटी है । उन जीवोंकी प्रति समय अनंत प्रकारकी जन्म, मरण