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पत्र ३१३]
विविध पत्र आदि संग्रह-२५वाँ वर्ष
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बम्बई आषाढ १९४८ सूर्य उदय-अस्त रहित है। वह केवल लोगोंको जिस समय चक्षुकी मर्यादासे बाहर चला जाता है उस समय अस्त, और जिस समय चक्षुकी मर्यादाके भीतर रहता है उस समय उदित मालूम होता हैपरन्तु वास्तवमें सूर्यमें तो उदय-अस्त कुछ भी नहीं है । ज्ञानी भी इसी तरह है; वह समस्त प्रसंगोंमें जैसा है वैसा ही है, परन्तु बात यह है कि केवल समागमकी मर्यादाको छोड़कर लोगोंको उसका ज्ञान ही नहीं रहता, इसलिये जिस प्रसंगमें जैसी अपनी दशा हो सकती है वैसी ही दशा लोग ज्ञानीकी भी कल्पना कर लेते हैं; तथा यह कल्पना जीवको ज्ञानीके परम आत्मभाव, परितोषभाव, और मुक्तभावको मालूम नहीं होने देती, ऐसा जानना चाहिये।
हालमें तो जिस प्रकारसे प्रारब्धके कर्मका उदय हो उसी तरह प्रवृत्ति करते हैं; और इस तरह प्रवृत्ति करना किसी प्रकारसे तो सुगम ही मालूम होता है।
यद्यपि हमारा चित्त नेत्रके समान है-नेत्रमें दूसरे अवयवोंके समान एक रज-कण भी सहन नहीं हो सकता । दूसरे अवयवोंरूप अन्य चित्त है । जिस चित्तसे हम रहते हैं वह चित्त नेत्ररूप है; उसमें वाणीका उठना, समझाना, यह करना अथवा यह न करना, ऐसा विचार होना यह बहुत मुश्किलसे बन पाता है । बहुतसी क्रियायें तो शून्यताकी तरह होती हैं। ऐसी स्थिति होनेपर भी उपाधि-योगका तो बलपूर्वक आराधन कर रहे हैं। इसका वेदन करना कम कठिन नहीं मालूम होता, क्योंकि यह आँखके द्वारा जमीनकी रेतको उठाने जैसा कार्य होता है; जिस तरह यह कार्य दुःखसेअत्यन्त दुःखसे-होना कठिन है, वैसे ही चित्तको उपाधि परिणामरूप होना कठिन है । सुगमतासे चित्तके स्थित होनेसे वह सम्यक्प्रकारसे वेदनाका अनुभव करता है-अखंड समाधिरूपसे अनुभव करता है । इस बातके लिखनेका आशय तो यह है कि ऐसे उत्कृष्ट वैराग्यमें ऐसे उपाधि-योगके अनुभव करनेके प्रसंगको कैसा गिना जाय ! और यह सब किसके लिये किया जाता है ! जानते हुए भी उसे क्यों छोड़ नहीं दिया जाता ! यह सब विचार करने योग्य है।
ईश्वरेच्छा जैसी होगी वैसा हो जायगा। विकल्प करनेसे खेद होता है; और वह तो जबतक उसकी इच्छा होगी तबतक उसी प्रकार प्रवृत्ति करेगा । सम रहना ही योग्य है।
__ दूसरी तो कुछ भी स्पृहा नहीं; कोई प्रारब्धरूप स्पृहा भी नहीं । सत्तारूप पूर्वमें उपर्जित की हुई किसी उपाधिरूप स्पृहाको तो अनुक्रमसे संवेदन करनी ही योग्य है। एक सत्संग-तुम्हारे सत्संगकी स्पृहा रहा करती है; और तो रुचिमात्रका समाधान हो गया है। इस आश्चर्यरूप बातको कहाँ कहनी चाहिये ! आश्चर्य होता है। यह जो देह मिली है यदि वह पहिले कभी भी नहीं मिली हो तो भविष्यकालमें भी वह प्राप्त होनेवाली नहीं। धन्यरूप-कृतार्थरूप ऐसे हममें उपाधि-योग देखकर सभी लोग भूल करें, इसमें आश्चर्य नहीं; तथा पूर्वमें जो सत्पुरुषकी पहिचान नहीं हुई, तो वह ऐसे ही योगके कारणसे नहीं हुई । अधिक लिखना नहीं सूझता । नमस्कार पहुँचे ।
समस्वरूप श्रीरायचंद्रका यथायोग्य.