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३१० श्रीमद् राजचन्द्र
[पत्र ३२३
३२३ बम्बई, श्रावण वदी ११ गुरु. १९४८ शुभेच्छा संपन्न भाई ०००० स्तंभतीर्थ.
जिसकी आत्मस्वरूपमें स्थिति है ऐसा जो....उसका निष्काम स्मरणपूर्वक यथायोग्य बाँचना । उस तरफसे "आजकल क्षायिक समकित नहीं होता" इत्यादि संबंधी व्याख्यानकी चर्चाविषयक तुम्हारा लिखा हुआ पत्र प्राप्त हुआ है । जो जीव उस उस प्रकारसे प्रतिपादन करते हैं-उपदेश करते हैं, और उस संबंधमें जीवोंको विशेषरूपसे प्रेरणा करते हैं, वे जीव यदि उतनी प्रेरणा-गवेषणा-जीवके कल्याणके विषयमें करेंगे तो इस प्रश्नके समाधान होनेका उन्हें कभी न कभी अवश्य अवसर मिलेगा । उन जीवोंके प्रति दोष-दृष्टि करना योग्य नहीं है, केवल निष्काम करुणासे ही उन जीवोंको देखना योग्य है। इस संबंधमें किसी प्रकारका चित्तमें खेद लाना योग्य नहीं, उस उस प्रसंगपर जीवको उनके प्रति क्रोध आदि करना योग्य नहीं। कदाचित् उन जीवोंको उपदेश देकर समझानेकी तुम्हें चिंता होती हो तो भी उसके लिये तुम वर्तमान दशाको देखते हुए तो लाचार ही हो, इसलिये अनुकंपा-बुद्धि और समता-बुद्धिपूर्वक उन जीवोंके प्रति सरल परिणामसे देखना, तथा ऐसी ही इच्छा करना चाहिये और यही परमार्थमार्ग है, ऐसा निश्चय रखना योग्य है ।
हालमें उन्हें जो कर्मसंबंधी आवरण है, उसे भंग करनेके लिये यदि उन्हें स्वयं ही चिंता उत्पन्न हो तो फिर तुमसे अथवा तुम जैसे दूसरे सत्संगीके मुखसे, उन्हें कुछ भी बारम्बार श्रवण करनेकी उल्लास-वृत्ति उत्पन्न हो; तथा किसी आत्मस्वरूप सत्पुरुषके संयोगसे मार्गकी प्राप्ति हो; परन्तु ऐसी चिंता उत्पन्न होनेका यदि उनके पास साधन भी हो तो हालमें वे ऐसी चेष्टापूर्वक आचरण न करें। और जबतक उस उस प्रकारकी जीवकी चेष्टा रहती है तबतक तीर्थंकर जैसे ज्ञानी-पुरुषका वाक्य भी उसके लिये निष्फल होता है; तो फिर तुम लोगोंके वाक्य निष्फल हों और उन्हें यह क्लेशरूप मालूम पड़े, इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं । ऐसा समझकर ऊपर प्रदर्शित की हुई अंतरंग भावनासे उनके प्रति बर्ताव करना, और किसी प्रकारसे भी जिससे उन्हें तुम्हारेसे क्लेशका कम कारण उपस्थित हो ऐसा विचार करना, यह मार्गमें योग्य गिना गया है ।
फिर, एक दूसरा अनुरोध कर देना भी स्पष्टरूपसे लिखने योग्य मालूम होता है, इसलिये लिखे देते हैं। वह यह है कि हमने पहिले तुम लोगोंसे कहा था कि जैसे बने वैसे हमारे संबंध दूसरे जीवोंसे कम ही बात करना । इस अनुक्रममें चलनेका लक्ष यदि विस्मृत हो गया हो तो अब फिरसे स्मरण रखना । हमारे संबंधमें और हमारेद्वारा कहे गये अथवा लिखे गये वाक्योंके संबंध ऐसा करना योग्य है; और हालमें इसके कारणोंको तुम्हें स्पष्ट बता देना योग्य नहीं । परन्तु यदि यह लक्ष अनुक्रमसे अनुसरण करनेमें विस्मृत होता है, तो यह दूसरे जीवोंको क्लेश आदिका कारण होता है, यह भी अब "क्षायिककी चर्चा" इत्यादिके संबंधसे तुम्हारे अनुभवमें आ गया है। इसका परिणाम यह होता है कि जो कारण जीवको प्राप्त होनेसे कल्याणके कारण हों, उन जीवोंको उन कारणोंकी प्राप्ति इस भवमें होती हुई रुक जाती है; क्योंकि वे तो अपनी अज्ञानतासे, जिसकी पहिचान नहीं हुई ऐसे सत्पुरुषके संबंधमें तुम लोगोंसे जानी हुई बातसे, उस सत्पुरुषके प्रति विमुख होते हैं, उसके विषयमें आग्रहपूर्वक