________________
३२५
पत्र ३४१, ३४२] विविध पत्र आदि संग्रह-२५वाँ वर्ष है कि पूर्वोपार्जित कर्मका समता भावसे वेदन करना और जो कुछ किया जाता है वह उसकि आधारसे किया जाता है, ऐसी दशा रहती है।
(२) हमें ऐसा हो आता है कि हम यद्यपि अप्रतिबद्धतासे रह सकते हैं तो भी हमें संसारके बाह्य प्रसंगकी, अंतर प्रसंगकी, और कुटुम्ब आदिके स्नेहके सेवन करनेकी इच्छा नहीं होती, तो फिर तुम जैसे मार्गेच्छावानको-जिसे प्रतिबद्धतारूप भयंकर यमका साहचर्य रहता है-उसके दिन-रात सेवन करनेका अत्यंत भय क्यों नहीं छूटता !
ज्ञानी पुरुषसे सहमत होकर जो संसारका सेवन करता है, उसे तीर्थकर अपने मार्गसे बाहर कहते हैं। __ कदाचित् जो ज्ञानी पुरुषसे सहमत होकर संसारका सेवन करते हैं, यदि वे सब तीर्थकरके मार्गसे बाहर ही कहे जाने योग्य हों, तो फिर श्रेणिक आदिको मिथ्याल्वका होना संभव होता है, और तीर्थकरके वचनमें विसंवाद आता है । यदि तीर्थंकरका वचन विसंवादयुक्त हो तो उन्हें फिर तीर्थंकर कहना ही योग्य नहीं।
तीर्थकरके कहनेका आशय यह है कि जो ज्ञानी-पुरुषसे सहमत होकर आत्मभावसे, स्वच्छंदतासे, कामनासे, अनुरागसे, ज्ञानीके वचनकी उपेक्षा करके, अनुपयोग परिणामी होकर संसारका सेवन करता है, वह पुरुष तीर्थकरके मार्गसे बाहर है।
३४१
बम्बई, असोज १९४८ हम किसी भी प्रकारके अपने आत्मिक-बंधनके कारण संसारमें नहीं रह रहे हैं । जो स्त्री है उससे पूर्वमें बाँधे हुए भोग और कर्मको निवृत्त करना है, और जो कुटुम्ब है उसका पूर्वमें लिया हआ कर्ज वापिस देकर निवृत्त होनेके लिये उसमें रह रहे हैं। तनके लिये, धनके लिये, भोगके लिये, सुखके लिये, स्वार्थके लिये अथवा अन्य किसी तरहके आत्मिक-बंधनके कारण हम संसारमें नहीं रह रहे हैं । जिस जीवको मोक्ष निकटतासे न रहता हो, वह जीव ऐसे अंतरंग भेदको कैसे समझ सकता है !
किसी दुःखके भयसे हमने संसारमें रहना स्वीकार किया है, यह बात भी नहीं है। मान-अपमानका तो जो कुछ भेद है वह सब निवृत्त ही हो गया है।
३४२
बम्बई, आसोज १९४८.
(१) जिस प्रकारसे यहाँ कहा गया था, यहाँ उससे भी सुगमरूपसे ध्यानका स्वरूप लिखा है।
१. किसी निर्मल पदार्थमें दृष्टिके स्थापित करनेका अभ्यास करके प्रथम उसे चंचलतारहित स्थितिमें लाना।
२. इस तरह कुछ स्थिरता प्राप्त हो जानेके बाद दाहिनी आँखमें सूर्य और बॉईमें चन्द्र स्थित है, इस प्रकारकी भावना करना।
. ३. इस भावनाको तबतक सुदृढ़ बनाना, जबतक कि यह भावना उस पदार्थके आकार आदिके दर्शनको उत्पन्न न कर दे।