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पत्र ३४२]
विविध पत्र आदि संग्रह-२५वाँ वर्ष
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जीवको अनंतकालमें बहुत बार हो चुका है, परन्तु ' यह पुरुष ज्ञानी है, इसलिये अब उसका आश्रय ग्रहण करना ही कर्तव्य है। ऐसा ज्ञान इस जीवको नहीं हुआ, और इसी कारण जीवको परिभ्रमण करना पड़ा है, हमें तो ऐसा दृढ़तापूर्वक मालूम होता है। (३) ज्ञानी-पुरुषकी पहिचान न होनेमें प्रायः करके जीवके हम तीन महान् दोष मानते हैं:
(१) एक तो 'मैं जानता हूँ, मैं समझता हूँ', इस प्रकारसे जीवको मान रहता है, वह मान । (२) दूसरे, ज्ञानी पुरुषके ऊपर राग करनेकी अपेक्षा परिग्रह आदिमें विशेष राग होना।
(३) तीसरे, लोक-भयके कारण, अपकीर्ति-भयके कारण, और अपमान-भयके कारण ज्ञानीसे विमुख रहना—उसके प्रति जिस प्रकार विनयान्वित होना चाहिये उस प्रकार न होना।
ये तीन कारण जीवको ज्ञानीसे अज्ञात ही रखते हैं। जीवकी ज्ञानीमें भी अपने समान ही कल्पना रहा करती है। अपनी कल्पनाके अनुसार ही ज्ञानीके विचारका और शास्त्रका भी माप किया जाता है; ग्रंथोंके पठन आदिसे थोड़ा भी ज्ञान प्राप्त हो जानेसे, जीवको उसे अनेक प्रकारसे दिखानेकी इच्छा रहा करती है-इत्यादि दोष ऊपर बताये हुए तीन दोषोंमें ही गर्भित हो जाते हैं:
और इन तीनों दोषोंका उपादान कारण तो एक 'स्वच्छंद' नामका महादोष ही है और उसका निमित्त कारण असत्संग है।
जिसको तुम्हारे प्रति ' तुम्हें किसी प्रकार कुछ भी परमार्थकी प्राप्ति हो' इस प्रयोजनके सिवाय दूसरी कोई भी स्पृहा नहीं, ऐसा मैं इस बातको यहाँ स्पष्ट बता देना चाहता हूँ कि तुम्हें अभी ऊपर बताये हुए दोषोंके प्रति प्रेम रहता है । ' मैं जानता हूँ, मैं समझता हूँ', यह दोष अनेकबार प्रवृत्तिमें रहा करता है; असार परिग्रह आदिमें भी महत्ताकी इच्छा रहती है-इत्यादि जो दोष हैं, वे ध्यान और ज्ञान इन सबके कारणभूत. ज्ञानी पुरुष और उसकी आज्ञाका अनुसरण करनेमें बाधा डालते हैं। इसलिये ऐसा मानते हैं कि जैसे बने तैसे आत्मामें वृत्ति करके उनके कम करनेका प्रयत्न करना, और अलौकिक भावनाके प्रतिबंधसे उदास होना यही कल्याणकारक है ।
शरीरमें यदि पहिले आत्मभावना होती हो तो उसे होने देना, क्रमसे फिर प्राणमें आत्मभावना करना, फिर इन्द्रियोंमें आत्मभावना करना, फिर संकल्प-विकल्परूप परिणाममें आत्मभावना करना,
और फिर स्थिर ज्ञानमें आत्मभावना करना-वहीं सब प्रकारकी अन्य आलंबनोंसे रहित स्थिति करना चाहिये।
(३) प्राण, ) सोहं वाणी,
उसका ध्यान करना। रस. ) अनहद
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आसोज वि. सं. १९४८ हे परमकृपाल देव ! जन्म, जरा, मरण आदि सब दुःखोंके अत्यन्त क्षय करनेवाले ऐसे