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३३२ श्रीमद् राजचन्द्र
[पत्र ३४८ अपनी बुद्धिकी कल्पनासे अध्यात्मके ग्रंथोंको पढ़कर कथनमात्र अध्यात्म पाकर मोक्ष-मार्गकी कल्पना की है । ऐसे कल्पना कर लेनेसे जीवको सत्समागम आदि हेतुमें उस मान्यताका आग्रह बाधा उपस्थित करके परमार्थकी प्राप्तिमें स्तंभरूप होता है ।
___ जो जीव शुष्क-क्रियाकी प्रधानतामें ही मोक्ष-मार्गकी कल्पना करते हैं, उन जीवोंको तथारूप उपदेशका आधार भी रहा करता है । ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप, इस तरह चार तरहसे मोक्षमार्गके कहे जानेपर भी पहिलेके दो पद तो उनके विस्मृततुल्य ही होते हैं; और चारित्र शब्दका अर्थ वेष तथा केवल बाह्य-विरतिमें ही समझे हुएके समान होता है । तथा तप शब्दका अर्थ केवल उपवास आदि व्रतका करना भी केवल बाह्य-संज्ञामें ही समझे हुएके समान रहता है । तथा यदि कभी ज्ञानदर्शन पद कहने भी पड़ जाँय तो वहाँ लौकिक-कथनके समान भावोंके कथनको ज्ञान, और उसकी प्रतीति अथवा उस कहनेवालेकी प्रतीतिमें ही दर्शन शब्दका अर्थ समझे हुएके समान रहता है ।
___ जो जीव बाह्य-क्रिया (दान आदि) और शुद्ध व्यवहार-क्रियाके उत्थापन करनेको ही मोक्ष-मार्ग समझते हैं, वे जीव शास्त्रोंके किसी एक वचनको नासमझीसे ही ग्रहण करके समझते हैं । यदि दान आदि क्रिया किसी अहंकार आदिस, निदान बुद्धिसे, अथवा जहाँ उस प्रकारकी क्रिया संभव न हो ऐसे छढे गुणस्थान आदि स्थानमें की जाय, तो वह संसारका ही हेतु है, ऐसा शास्त्रोंका मूल आशय है । परन्तु दान आदि क्रियाओंके मूलसे ही उत्थापन कर डालनेका शास्त्रोंका अभिप्राय नहीं है। इसे जीव केवल अपनी मतिकी कल्पनासे ही निषेध करता है । तथा व्यवहार दो प्रकारका है:-एक परमार्थहेतुमूल व्यवहार और दूसरा व्यवहाररूप व्यवहार । पूर्वमें इस जीवके अनंतोंबार आत्मार्थ करनेपर भी आत्मार्थ नहीं हुआ, ऐसे शास्त्रोंमें वाक्य हैं। उन वाक्योंको पढ़कर जीव अपने आपको व्यवहारका बिलकुल ही उत्थापन करनेवाला समझा हुआ मान लेता है; परन्तु शास्त्रकारने तो ऐसा कुछ भी नहीं कहा । जो व्यवहार परमार्थहेतुमूल व्यवहार नहीं, और केवल व्यवहारहेतु व्यवहार है, शास्त्रकारने उसीके दुराग्रहका निषेध किया है । जिस व्यवहारका फल चतुर्गति होता है, वह व्यवहार व्यवहारहेतु कहा जा सकता है, अथवा जिस व्यवहारसे आत्माकी विभाव-दशा दूर होने योग्य न हो, उस व्यवहारको व्यवहारहेतु व्यवहार कहा जा सकता है। इसका शास्त्रकारने निषेध किया है, और वह भी एकांतसे नहीं किया । केवल दुराग्रहसे अथवा उसीमें मोक्ष-मार्ग माननेवालेको उसे सच्चे व्यवहारके ऊपर लानेके लिये इसका निषेध किया है। और परमार्थहेतुमूल व्यवहार-शम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा, आस्था, अथवा सद्गुरु, सत्शास्त्र और मन वचन आदि समिति, तथा गुप्ति-का निषेध नहीं किया । और यदि उसका निषेध करने योग्य होता तो फिर शास्त्रोंका उपदेश करके बाकी क्या समझाने जैसा रह जाता था, अथवा फिर किन साधनोंको करानेका उपदेश करना बाकी रह जाता था, जिससे शास्त्रोंका उपदेश किया ! अर्थात् उस प्रकारके व्यवहारसे परमार्थ प्राप्त किया जाता है, और जीवको उस प्रकारका व्यवहार अवश्य ही ग्रहण करना चाहिये, जिससे वह परमार्थ प्राप्त करे, ऐसा शास्त्रोंका आशय है। शुष्क-अध्यात्मी अथवा उसके समागमी इस आशयके समझे बिना ही उस व्यवहारका उत्थापन करके अपने और दूसरेको बोधि-दुर्लभता करते हैं।