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श्रीमद् राजवन्द्र [पत्र ३५१, ३५२, ३५३
३५१ बम्बई, मंगसिर वदी ९ सोम. १९४९ (१) उपाधिके सहन करनेके लिये जितनी चाहिये उतनी कठिनाई मेरेमें नहीं है, इसलिये उपाधिसे अत्यंत निवृत्ति पानेकी इच्छा रहा करती है, फिर भी उदयरूप जानकर वह यथाशक्ति सहन होती है।
परमार्थका दुःख मिटनेपर भी संसारका प्रासंगिक दुःख तो रहा ही करता है; और वह दुःख अपनी इच्छा आदिके कारण नहीं, परन्तु दूसरेकी अनुकम्पा तथा उपकार आदिके कारण ही रहता है; और उस विडंबनामें चित्त कभी कभी विशेष उद्वेगको प्राप्त हो जाता है ।
इतने लेखके ऊपरसे वह उद्वेग स्पष्ट समझमें नहीं आ सकता; कुछ अंशमें तुम्हें समझमें आयेगा । इस उद्वेगके सिवाय हमें दूसरा कोई भी संसारके प्रसंगका दुःख नहीं मालूम होता । जितने प्रकारके संसारके पदार्थ हैं, यदि उन सबमें निस्पृहता हो और उद्वेग रहता हो, तो वह अन्यकी अनुकंपा अथवा उपकार अथवा इसी प्रकारके किसी कारणसे रहता है, ऐसा मुझे निश्चयरूपसे मालूम होता है।
इस उद्वेगके कारण कभी तो आँखोंमें आँसु आ जाते हैं; और उन सब कारणोंके प्रति प्रवृत्ति करनेका मार्ग अमुक अंशमें परतंत्र ही दिखाई देता है, इसलिये समान उदासीनता आ जाती है।
ज्ञानीके मार्गका विचार करनेपर मालूम होता है कि यह देह किसी भी प्रकारसे मूर्छा करनेके योग्य नहीं है; उसके दुःखसे इस आत्माको शोक करना योग्य नहीं । आत्माको आत्म-अज्ञानसे शोक करनेके सिवाय उसे दूसरा कोई शोक करना योग्य नहीं है । प्रगटरूपसे यमको समीपमें देखनेपर भी जिसकी देहमें मूर्छा नहीं आती, उस पुरुषको नमस्कार है। इसी बातका चिंतवन रखना, यह हमें तुम्हें और सबको योग्य है।
देह आत्मा नहीं है । आत्मा देह नहीं है । जैसे घड़ेको देखनेवाला घड़ेसे भिन्न है, इसी तरह देहको देखनेवाली, जाननेवाली आत्मा देहसे भिन्न है, अर्थात् वह देह नहीं है।
विचार करनेसे यह बात प्रगट अनुभवसे सिद्ध होती है, तो फिर इससे भिन्न देहके स्वाभाविक क्षय-वृद्धिरूप आदि परिणामको देखकर हर्ष-शोक युक्त होना किसी भी प्रकारसे योग्य नहीं है। और तुम्हें और हमें उसका निर्धारण करना-रखना-योग्य है, और यही ज्ञानीके मार्गकी मुख्य ध्वनि है।
(२) व्यापारमें यदि कोई यांत्रिक व्यापार सूझ पड़े तो आजकल कुछ लाभ होना संभव है।
३५२ बम्बई, मंगसिर वदी १३ शनि. १९४९ भावसार खुशालरायजीने मंदवाड़में केवल पाँच मिनिटके भीतर देहको त्याग दिया है । संसारमें उदासीन रहनेके सिवाय दूसरा कोई उपाय नहीं है।
३५३ बम्बई, माघ सुदी ९ गुरु. १९४९ तुम सब मुमुक्षुओंके प्रति नम्रतासे यथायोग्य पहुँचे । हम निरन्तर ज्ञानी पुरुषको सेवाकी इच्छा