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श्रीमद् राजचन्द्र
[पत्र ३४७ . (१)
मोह-कषाय हरेक जीवकी अपेक्षासे ज्ञानीने क्रोध, मान, माया और लोभ-यह क्रम रक्खा है। यह क्रम इन कषायोंके क्षय होनेकी अपेक्षासे रक्खा है।
पहिली कषायके क्षय होनेसे क्रमसे दूसरी कषायोंका क्षय होता है। तथा अमुक अमुक जीवोंकी अपेक्षासे मान, माया, लोभ और क्रोध ऐसा जो क्रम रखा गया है वह देश, काल और क्षेत्रको देखकर ही रक्खा गया है। पहिले जीवको अपने आपको दूसरेसे ऊँचा समझनेसे मान उत्पन्न होता है। फिर उसके लिये वह छल-कपट करता है, और उससे पैसा पैदा करता है और वैसा करनेमें विघ्न करनेवालेके ऊपर क्रोध करता है। इस तरहसे कषायकी प्रकृतियाँ अनुक्रमसे बँधती हैं, जिसमें लोभकी तो इतनी प्रबल मिठास है कि जीव उसमें अपने भानतकको भी भूल जाता है, और उसकी परवाहतक भी नहीं करता; इसलिये मानरूपी कषायके कम करनेसे अनुक्रमसे दूसरी कषाय भी इसके साथ साथ कम हो जाती हैं ।
आस्था और श्रद्धा हरेक जीवको जीवके अस्तित्वसे लगाकर मोक्षतककी पूर्णरूपसे श्रद्धा रखनी चाहिये । इसमें जरा भी शंका नहीं रखनी चाहिये । इस जगह अश्रद्धा रखना, यह जीवके पतित होनेका कारण है, और यह इस प्रकारका स्थानक है कि वहाँसे नीचे गिर जानेसे फिर कोई भी स्थिति नहीं रह जाती।
एक अंतर्मुहूर्तमें सत्तर कोडाकोड़ी सागरकी स्थिति बँधती है; जिसके कारण जीवको असंख्यातों भवोंमें भ्रमण करना पड़ता है।
चारित्रमोहसे गिरा हुआ तो ठिकाने लग भी जाता है, पर दर्शनमोहसे गिरा हुआ ठिकाने नहीं लगता। कारण यह है कि समझमें फेर होनेसे करनेमें भी फेर हो जाता है । वीतरागरूप ज्ञानीके वचनमें अन्यथाभाव होना संभव नहीं है । उसके अवलंबनमें रहकर मानों अमृत ही निकाला हो, इस रीतिसे श्रद्धाको जरा भी न्यून नहीं करना चाहिये। जब जब शंकाके उपस्थित होनेका प्रसंग उपस्थित हो, तब तब जीवको विचारना चाहिये कि उसमें अपनी ही भूल होती है। जिस मतिसे वीतराग पुरुषोंने ज्ञानको कहा है, वह मति इस जीवमें है ही नहीं; और इस जीवकी मति तो यदि शाकमें नमक कम पड़ा हो तो इतने मात्रमें ही रुक जाती है तो फिर वीतरागके ज्ञानकी मतिका मुकाबला तो वह कहाँसे कर सकता है ! इस कारण बारहवें गुणस्थानकके अंततक भी जीवको ज्ञानीका अवलंबन लेना चाहिये, ऐसा कहा है।
अधिकारी न होनेपर भी जो ऊँचे ज्ञानका उपदेश दिया जाता है, वह केवल इस जीवको अपनेको ज्ञानी और चतुर मान लेनेके कारण-उसके मान नष्ट करनेके कारण-ही दिया जाता है; और जो नीचेके स्थानकोंसे बात कही जाती है, वह केवल इसलिये कही जाती है कि वैसा प्रसंग प्राप्त होनेपर भी जीव नीचेका नीचे ही रहे।