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श्रीमद् राजचन्द्र
[पत्र ३२३ पढ़ा है, और सुना भी है; और यह वाक्य मिथ्या है अथवा मृषा है, ऐसा हमारा अभिप्राय नहीं है। तथा वह वाक्य जिस प्रकारसे लिखा है, वह एकांत अभिप्रायसे ही लिखा है, ऐसा भी हमें नहीं लगता। कदाचित् ऐसा समझो कि वह वाक्य एकांतरूपसे ऐसा ही हो तो भी किसी भी प्रकारसे व्याकुल होना योग्य नहीं । कारण कि यदि इन सब व्याख्याओंको सत्पुरुषके आशयपूर्वक नहीं जाना तो फिर ये व्याख्यायें ही सफल नहीं हैं। कदाचित् समझो कि इसके स्थानमें, जिनागममें लिखा हो कि चौथे कालकी तरह पाँचवें कालमें भी बहुतसे जीवोंको मोक्ष होगा, तो इस बातका श्रवण करना कोई तुम्हारे
और हमारे लिये कल्याणकारी नहीं हो सकता, अथवा मोक्ष-प्राप्तिका कारण नहीं हो सकता, क्योंकि जिस दशामें वह मोक्ष-प्राप्ति कही है, उसी दशाकी प्राप्ति ही इष्ट है, उपयोगी है, और कल्याणकारी है। श्रवण करना तो एक बात मात्र है, इसी तरह इससे प्रतिकूल वाक्य भी मात्र एक बात ही है। ये दोनों ही बातें लिखी हों, अथवा कोई एक ही लिखी हो, अथवा दोनोंमेंसे एक भी बात न लिखकर कोई भी व्यवस्था न बताई गई हो, तो भी वह बंध अथवा मोक्षका कारण नहीं है।
केवल बंध दशा ही बंध है, और मोक्ष दशा ही मोक्ष है, क्षायिक दशा ही क्षायिक है, अन्य दशा ही अन्य है, जो श्रवण है वह श्रवण है, जो मनन है वह मनन है, जो परिणाम है वह परिणाम है, जो प्राप्ति है वह प्राप्ति है-ऐसा सत्पुरुषका निश्चय है। जो बंध है वह मोक्ष नहीं है, जो मोक्ष है वह बंध नहीं है, जो जो है वह वही है, जो जिस स्थितिमें है वह उसी स्थितिमें है । जिस प्रकार बंध-बुद्धि दूर हुए बिना मोक्ष-जीवन्मुक्ति-मानना कार्यकारी नहीं है, उसी तरह अक्षायिक दशासे क्षायिक मानना भी कार्यकारी नहीं है । केवल माननेका फल नहीं, फल केवल दशाका ही है।
जब यह बात है तो फिर अब अपनी आत्मा हालमें कौनसी दशामें है, और उस क्षायिक समकिती जीवकी दशाका विचार करने योग्य है या नहीं; अथवा उससे उतरती हुई अथवा उससे चढ़ती हुई दशाके विचारको जीव यथार्थरूपसे कर सकता है अथवा नहीं ? इसीका विचार करना जीवको श्रेयस्कर है । परन्तु अनंतकाल बीत गया, फिर भी जीवने ऐसा विचार नहीं किया। उसे ऐसा विचार करना योग्य है, ऐसा उसे भासित भी नहीं हुआ और यह जीव अनंतबार निष्फलतासे सिद्ध-पदतकका उपदेश कर चुका है; ऊपर कहे हुए उस क्रमको उसने बिना विचारे ही किया है-विचारपूर्वक यथार्थ विचारसे नहीं किया। जिस प्रकार जीवने पूर्व में यथार्थ विचारके बिना ही ऐसा किया है, उसी तरह वह उस दशा ( यथार्थ विचारदशा) के बिना वर्तमानमें ऐसा करता है, और जबतक जीवको अपने ज्ञानके बलका भान नहीं होगा, तबतक वह भविष्यमें भी इसी तरह प्रवृत्ति करता रहेगा। जीवके किसी भी महापुण्यके योगका त्याग करनेसे, तथा वैसे मिथ्या उपदेशपर चलनेसे जीवका बोध-बल आवरणको प्राप्त हो गया है, ऐसा जानकर इस विषयमें सावधान होकर यदि वह निरावरण होनेका विचार करेगा तो वह वैसा उपदेश करनेसे, दूसरेको प्रेरणा करनेसे और आग्रहपूर्वक बोलनेसे रुक जायगा। अधिक क्या कहें ! एक अक्षर बोलते हुए भी अतिशय अतिशय प्रेरणासे भी वाणी मौनको ही प्राप्त होगी। और उस मौनको प्राप्त होनेके पहिले ही जीवसे एक अक्षरका सत्य बोला जाना भी अशक्य है। यह बात किसी भी प्रकारसे तीनों कालमें संदेह करने योग्य नहीं है।