________________
पत्र ३२९, ३३०, ३३१, ३३२ ] विविध पत्र आदि संग्रह-२५ वाँ वर्ष ३१९
३२९ बम्बई, भाद्रपद सुदी १० गुरु. १९४८ जिस जिस प्रकारसे आत्मा आत्म-भावको प्राप्त करे, वे सब धर्मके ही भेद हैं । जिस प्रकारसे आत्मा अन्य भावको प्राप्त करे वह भेद अन्यरूप ही है, धर्मरूप नहीं । तुमने हालमें जो वचन सुननेके पश्चात् निष्ठा अंगीकार की है, वह निष्ठा श्रेयस्कर है । वह निष्ठा आदि मुमुक्षुको दृढ़ सत्संग मिलनेपर अनुक्रमसे वृद्धिको प्राप्त होकर आत्मस्थितिरूप होती है।
जीवको, धर्मको केवल अपनी ही कल्पनासे अथवा कल्पना-प्राप्त किसी अन्य पुरुषसे श्रवण करना, मनन करना अथवा आराधना करना योग्य नहीं है। जो केवल आत्म-स्थितिसे ही रहता है, ऐसे सत्पुरुषसे ही आत्मा अथवा आत्मधर्मका श्रवण करना योग्य है—यावजीवन आराधना करना योग्य है।
३३० बम्बई, भाद्रपद सुदी १० गुरु.१९४८ संसार-कालसे लगाकर इस क्षणतक तुम्हारे प्रति किसी भी प्रकारकी अविनय, अभक्ति, असत्कार अथवा ऐसा ही अन्य दूसरे प्रकारका कोई भी अपराध मन, वचन और कायाके परिणामसे हुआ हो, उस सबको अत्यंत नम्रतासे, उन सब अपराधोंके अत्यंत लय परिणामरूप आत्मस्थितिपूर्वक, मैं सब प्रकारसे क्षमा माँगता हूँ और इसे क्षमा करानेके मैं योग्य हूँ। तुम्हें किसी भी प्रकारसे उस अपराध आदिका अनुपयोग हो तो भी अत्यंतरूपसे, हमारी किसी भी प्रकारसे वैसी पूर्वकालसंबंधी भावना समझकर, इस क्षणमें अत्यंतरूपसे क्षमा करने योग्य आत्मस्थिति करनेके लिये लघुतासे प्रार्थना है।
३३१ बम्बई, भाद्रपद सुदी२० गुरु. १९४८ इस क्षणपर्यंत तुम्हारे प्रति किसी भी प्रकारसे पूर्व आदि कालमें मन वचन और कायाके योगसे जो जो कुछ अपराध आदि हुए हों, उन सबको अत्यंत आत्मभावसे विस्मरण करके क्षमा चाहता हूँ। इसके बाद किसी भी कालमें तुम्हारे प्रति उस प्रकारके अपराधका होना असंभव समझता हूँ, ऐसा होनेपर भी किसी अनुपयोग भावसे देहपर्यंत, यदि वह अपराध कभी हो भी जाय तो उस विषयमें भी यहाँ अत्यंत नम्र परिणामसे क्षमा चाहता हूँ और उस क्षमाभावरूप इस पत्रको विचारते हुए बारम्बार चितवन करके तुम भी हमारे पूर्वकालके उस सर्व प्रकारके अपराधको भूल जाने योग्य हो ।
३३२ बम्बई, भाद्रपद सुदी १२ रवि. १९४८ परमार्थ शीघ्र प्रकाशित होनेके विषयमें तुम दोनोंका आग्रहपूर्ण वचन प्राप्त हुआ; तथा तुमने जो व्यवहार-चिंताके विषयमें लिखा, और उसमें भी सकामभाव निवेदन किया, वह भी आग्रहपूर्वक प्राप्त हुआ है।
___ हालमें तो इस सबके विसर्जन कर देनेरूप उदासीनता ही रहती है, और उस सबको ईश्वरेच्छाके आधीन ही सौंप देना योग्य है । हालमें ये दोनों बातें जबतक हम फिरसे न लिखें तबतक विस्मरण ही करने योग्य हैं।