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श्रीमद् राजचन्द्र
[पत्र ३२५ है कि तीनों कालमें हमारे संबंधमें यह मालूम होना कल्पित ही समझना चाहिये, अर्थात् संसार-सुखवृत्तिसे हमें निरन्तर उदास भाव ही रहता है। ये वाक्य यह समझकर नहीं लिखे कि तुम्हारा हमारे प्रति कुछ कम निश्चय है, अथवा यदि होगा तो वह निवृत्त हो जायगा; इन्हें किसी दूसरे ही हेतुसे लिखा है।
जगत्में किसी भी प्रकारसे जिसकी किसी भी जीवके प्रति भेद-दृष्टि नही, ऐसे श्री....निष्काम आत्मस्वरूपका नमस्कार पहुंचे।
" उदासीन " शब्दका अर्थ सम भाव है।
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बम्बई, श्रावण १९४८ मुमुक्षुजन यदि सत्संगमें हों तो वे निरन्तर उल्लासित परिणाममें रहकर अल्प कालमें ही आत्म-साधन कर सकते हैं, यह बात यथार्थ है । तथा सत्संगके अभावमें सम परिणति रहना कठिन है; फिर भी ऐसे करनेमें ही आत्म-साधन रहता है, इसलिये चाहे जैसे मिथ्या निमित्तमें भी जिस प्रकारसे सम परिणति आ सके, उसी प्रकारसे प्रवृत्ति करना योग्य है । यदि ज्ञानीके आश्रयमें ही निरन्तर वास हो तो थोड़े ही साधनसे भी सम परिणति आती है, इसमें तो कोई भी विवाद नहीं । परन्तु जब पूर्वकर्मके बंधनसे अनुकूल न आनेवाले निमित्तमें रहना होता है, उस समय चाहे किसी भी तरह, जिससे उसके प्रति द्वेषरहित परिणाम रहे, ऐसे प्रवृत्ति करना ही हमारी वृत्ति है, और यही शिक्षा भी है।
वे जिस तरह सत्पुरुषके दोषका उच्चारण भी न कर सकें, उस तरह यदि तुमसे प्रवृत्ति करना बन सकता हो तो कष्ट सहकर भी उस तरह आचरण करना योग्य है। हालमें हमारी तुम्हें ऐसी कोई शिक्षा नहीं है कि जिससे तुम्हें उनसे बहुत तरहसे प्रतिकूल चलना पड़े। यदि किसी बाबतमें वे तुम्हें बहुत प्रतिकूल समझते हों तो वह जीवका अनादिका अभ्यास है, ऐसा जानकर धीरज रखना ही अधिक योग्य है।
जिसके गुणगान करनेसे जीव भव-मुक्त हो जाता है, उसके गुणगानसे प्रतिकूल होकर दोषभावसे प्रवृत्ति करना, यह जीवको महा दुःखका देनेवाला है, ऐसा मानते हैं; और जब वैसे प्रकारमें जीव आकर फँस जाते हैं तो हम समझते हैं कि जीवको कोई ऐसा ही पूर्वकर्मका बंधन होना चाहिये । हमें तो इस विषयमें द्वेषरहित परिणाम ही रहता है, और उनके प्रति करुणा ही आती है । तुम भी इस गुणका अनुकरण करो; और जिस तरह उन लोगोंको गुणगान करनेके योग्य सत्पुरुषके अवर्णवाद बोलनेका अवसर उपस्थित न हो, ऐसा योग्य मार्ग प्रहण करो, यही अनुरोध है ।
हम स्वयं उपाधि-प्रसंगमें रहते आये हैं और रह रहे हैं, इसके ऊपरसे हम स्पष्ट जानते हैं कि उस प्रसंगमें सम्पूर्ण आत्मभावसे प्रवृत्ति करना दुर्लभ है। इसलिये निरुपाधिपूर्ण द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका सेवन करना आवश्यक है । ऐसा जानते हुए भी हालमें तो हम ऐसा ही कहते हैं कि जिससे उस उपाधिका वहन करते हुए निरुपाधिका विसर्जन न हो जाय, ऐसा ही करते रहो।
___जब हम जैसे भी सत्संगका सेवन करते हैं, तो फिर वह तुम्हें कैसे असेवनीय हो सकता है, यह जानते हैं; परन्तु हालमें तो हम पूर्वकर्मको ही भज रहे हैं, इसलिये तुम्हें दूसरा मार्ग हम कैसे बतावें, यह तुम ही विचारो।