________________
३०८
भीमद् राजचन्द्र
[पत्र ३२१
३२१
बम्बई, श्रावण वदी १९४८
तेम श्रुतधर्मे मन दृढ धरे, ज्ञानाक्षेपकवंत रे. जिसका विचार-ज्ञान विक्षेपरहित हो गया है, ऐसा 'ज्ञानाक्षेपकवंत'-आत्म-कल्याणकी इच्छावाला पुरुष ज्ञानीके मुखसे श्रवण किये हुए आत्म-कल्याणरूप धर्ममें निश्चल परिणामसे मनको धारण करता है-यह ऊपरके पदोंका सामान्य भाव है।
उस निश्चल परिणामका स्वरूप वहाँ कैसे घटता है, इस बातको पहले ही बता दिया है। यह इसी तरह घटता है कि जिस तरह घरके दूसरे कामोंमें प्रवृत्ति करते हुए भी पतिव्रता स्त्रीका मन अपने प्रिय स्वामीमें ही लीन रहता है । इस पदका विशेष अर्थ पहिले लिखा है, उसे स्मरण करके सिद्धांतरूप ऊपरके पदके साथ उसका अनुसंधान करना योग्य है, क्योंकि " मन महिलानुं वहाला उपरे" यह पद जो है वह केवल दृष्टांतरूप ही है ।
__ अत्यन्त समर्थ सिद्धांतका प्रतिपादन करते हुए जीवके परिणाम उस सिद्धांतके ठीक ठीक बैठ जानेके लिये समर्थ दृष्टांत ही देना. योग्य है, ऐसा मानकर ग्रंथकर्ता इस स्थलपर जगत्में-संसारमेंप्रायः मुख्य, पुरुषके प्रति क्लेश आदि भावरहित जो स्त्रीका काम्य-प्रेम है, उसी प्रेमको सत्पुरुषसे श्रवण किये हुए धर्ममें परिणमित करनेके लिये कहते हैं। उस सत्पुरुषद्वारा श्रवण किये हुए धर्ममें, अन्य सब पदार्थोके प्रति जो प्रेम है, उससे उदासीन होकर एक लयसे, एक स्मरणसे, एक श्रेणीसे, एक उपयोगसे, और एक परिणामसे, सर्व वृत्तिमें रहनेवाले काम्य-प्रेमको हटाकर, श्रुतधर्मरूप करनेका उपदेश किया गया है। इस काम्य-प्रेमसे भी अनंत गुणविशिष्ट प्रेम श्रुतके प्रति करना योग्य है, फिर भी दृष्टांत इसकी सीमा नहीं बना सका। इस कारण जहाँतक दृष्टांत पहुँच सका, वहींतकका प्रेम कहा गया है, यहाँ दृष्टांत सिद्धांतकी चरम सीमातक नहीं पहुँच सका है।
अनादि कालसे जीवको संसाररूप अनंत परिणति प्राप्त होनेके कारण उसे असंसाररूप किसी भी अंशका ज्ञान नहीं है। बहुतसे कारणोंका संयोग मिलनेपर उस अंश-दृष्टिके प्रगट होनेका योग यदि उसे मिला भी तो इस विषम संसार-परिणतिके कारण उसे यह अवकाश नहीं मिलता। जबतक यह अवकाश नहीं मिलता तबतक जीवको निजकी प्राप्तिका भान कहना योग्य नहीं; और जबतक इसकी प्राप्ति न हो तबतक जीवको कोई सुख कहना योग्य नहीं है-उसे दुःखी कहना ही योग्य है । ऐसा देखकर जिसे अत्यंत अनंत करुणा प्राप्त हुई है, ऐसा आप्त पुरुष, दुःख दूर करनेके जिस मार्गको उसने जाना है, वह उस मार्गको कहता था, कहता है, और भविष्यमें कहेगा। वह मार्ग यही है कि जिसमें जीवका स्वाभाविक रूप प्रगट हुआ है जिसमें जीवका स्वाभाविक सुख प्रगट हुआ है-ऐसा ज्ञानी पुरुष ही उस अज्ञान-परिणति और इससे प्राप्त जो दुःख-परिणाम है, उससे आत्माको स्वाभाविकरूपसे समझा सकनेके योग्य है-कह सकनेके योग्य है और वह वचन आत्माके स्वाभाविक ज्ञानपूर्वक ही होता है, इसलिये वह उस दुःखको दूर कर सकनेमें समर्थ है। इसलिये यदि वह वचन किसी भी प्रकारसे जीवको श्रवण हो, उसे अपूर्वभावरूप जानकर उसमें परम प्रेम स्फुरित हो, तो तत्काल ही अथवा अनुक्रमसे आत्माका स्वाभाविक रूप प्रगट हो सकता है।