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पत्र ३२०]
विविध पत्र आदि संग्रह-२५याँ वर्ष
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ऐसे अर्थसे भरपूर ये दो पद हैं। पहिला पद भक्तिप्रधान है; परन्तु यदि इस प्रकारसे गूढ आशयसे जीवका निदिध्यासन न हो, तो फिर दूसरा पद ज्ञानप्रधान जैसा भासित होता है, और तुम्हें भी भासित होगा, ऐसा समझकर उस दूसरे पदका उस प्रकारका भास-बोध-होनेके लिये फिरसे पत्रके अंतमें केवल प्रथमका एक ही पद लिखकर प्रधानरूपसे भक्तिको प्रदर्शित किया है।
भक्तिप्रधान दशासे आचरण करनेसे जीवके स्वच्छंद आदि दोष सुगमतासे नष्ट हो जाते हैं; ऐसा ज्ञानी पुरुषोंका प्रधान आशय है।
उस भक्तिमें जिस जीवको अल्प भी निष्काम भक्ति उत्पन्न हो गई हो, तो वह बहुतसे दोषोंसे दूर करनेके लिये योग्य होती है । अल्पज्ञान, अथवा ज्ञानप्रधान-दशा, ये असुगम मार्गकी ओर, स्वच्छंद आदि दोषकी ओर, अथवा पदार्थसंबंधी भ्रांतिकी ओर ले जाते हैं, प्रायः करके ऐसा ही होता है; उसमें भी इस कालमें तो बहुत कालतक जीवनपर्यंत भी जीवको भक्तिप्रधान-दशाका ही आराधन करना योग्य है। ज्ञानियोंने ऐसा ही निश्चय किया मालूम होता है ( हमें ऐसा मालूम होता है, और ऐसा ही है)।
तुम्हारे हृदयमें जो मूर्त्तिके दर्शन करनेकी इच्छा है, (तुम्हें) उसका प्रतिबंध करनेवाली तुम्हारी प्रारब्ध-स्थिति है; और उस स्थितिके परिपक्क होनेमें अभी देरी है; फिर उस मूर्तिको प्रत्यक्षरूपमें तो हालमें गृहस्थाश्रम है, और चित्रपटमें सन्यस्त-आश्रम है; यह ध्यानका एक दूसरा मुख्य प्रतिबंध है। उस मूर्तिसे उस आत्मस्वरूप पुरुषकी दशा फिर फिरसे उसके वाक्य आदिके अनुसंधानसे विचार करना योग्य है और यह उसके हृदय-दर्शनसे भी महान् फल है। इस बातको यहाँ संक्षिप्त करनी पड़ती है।
श्रृंगी ईलीकाने चटकावे, ते मुंगी जग जोवे रे. यह वाक्य परम्परागत है। ऐसा होना किसी तरह संभव है, तथापि उस प्रोफेसरकी गवेषणाके अनुसार यदि मान लें कि ऐसा नहीं होता, तो भी इसमें कोई हानि नहीं है, क्योंकि जब दृष्टान्त वैसा प्रभाव उत्पन्न कर सकता है, तो फिर सिद्धांतका ही अनुभव अथवा विचार करना चाहिये । प्रायः करके इस दृष्टान्तके संबंध किसीको ही शंका होगी, इसलिये यह दृष्टान्त मान्य है, ऐसा मालूम होता है । यह लोक-दृष्टि से भी अनुभवगम्य है, इसलिये सिद्धांतमें उसकी प्रबलता समझकर महान् पुरुष उस दृष्टान्तको देते आये हैं, और किसी तरह ऐसा होना हम संभव भी मानते हैं । कदाचित् थोड़ी देरके लिये वह दृष्टांत सिद्ध न हो ऐसा प्रमाणित हो भी जाय, तो भी तीनों कालमें निराबाध-अखंड-सिद्ध बात उसके सिद्धांत-पदकी तो है ही।
जिनस्वरूप थइ जिन आराधे, ते सहि जिनवर होवे रे. आनन्दघनजी तथा दूसरे सब ज्ञानीपुरुष ऐसा ही कहते हैं । और फिर जिनभगवान् और ही प्रकारसे कहते हैं कि अनन्तबार जिनभगवान्की भक्ति करनेपर भी जीवका कल्याण नहीं हुआ। जिनभगवान्के मार्गमें चलनेवाले स्त्री-पुरुष ऐसा कहते हैं कि वे जिनभगवान्की आराधना करते हैं, और उन्हींकी आराधना करते जाते हैं, अथवा उनकी आराधना करनेका उपाय करते हैं, फिर भी ऐसा मालूम नहीं होता कि वे जिनवर हो गये हैं। तीनों कालमें अखंडरूप सिद्धांत तो यहीं खंडित हो जाता है, तो फिर यह बात शंका करने योग्य क्यों नहीं है !