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पत्र ३१८, ३१९] विविध पत्र आदि संग्रह-२५वाँ वर्ष
३०५ ३१८ बम्बई, श्रावण सुदी १० बुध. १९४८ (१)
ॐ नमः निष्काम यथायोग्य.
जिन उपार्जित कर्मोको भोगते हुए भविष्यमें बहुत समय व्यतीत होगा, वे कर्म यदि तीव्रतासे उदयमें रहकर क्षयको प्राप्त होते हों तो वैसा होने देना योग्य है, ऐसा बहुत वर्षोंका संकल्प है।।
जिससे व्यावहारिक प्रसंगसंबंधी चारों तरफसे चिंता उत्पन्न हो, ऐसे कारणोंको देखकर भी निर्भयताके आश्रित रहना ही योग्य है । मार्ग इसी तरह है। हालमें हम कुछ विशेष नहीं लिख सकते, इसके लिये क्षमा माँगते हैं ।
नांगरमुख पामर नव जाणे, वल्लभसुख न कुमारी रे, अनुभवविण तेम ध्यानतणुं मुख, कोण जाणे नर नारी रे। मन महिलानुं वहाला उपरे, बीजां काम करत रे ।
(२) _ 'सत्' एक प्रदेशभर भी दूर नहीं है, परन्तु उसके प्राप्त करनेमें अनंत अंतराय रहा करते हैं और एक एक अंतराय लोकके बराबर है। जीवका कर्त्तव्य यही है कि उस सत्का अप्रमत्ततासे श्रवण, मनन, और निदिध्यासन करनेका अखंड निश्चय रक्खे ।
हे राम ! जिस अवसरपर जो प्राप्त हो जाय उसीमें संतोषपूर्वक रहना, यह सत्पुरुषोंका कहा हुआ सनातन धर्म है-ऐसा वसिष्ठ कहते थे।
३१९ बम्बई, श्रावण सुदी १० बुध. १९४८ मन महिलानुं वहाला उपरे, बीजां काम करत रे,
तेम श्रुतधर्मे मन दृढ धरे ज्ञानाक्षेपकवंत रे। जिस पत्रमें मनकी व्याख्याके विषयमें लिखा है, जिस पत्रमें पपिलके पत्तेका दृष्टान्त लिखा है, जिस पत्रमें “ यम नियम संयम आप कियो" इत्यादि काव्य आदिके विषयमें लिखा है, जिस पत्रमें मन आदिके निरोध करनेसे शरीर आदि व्यथा उत्पन्न होनेके विषयमें सूचना की है, और इसके बादका एक सामान्य पत्र-ये सब पत्र मिले हैं । इस विषयमें मुख्य भक्तिसंबंधी इच्छा और मूर्तिका प्रत्यक्ष होना, इस बातके संबंधमें प्रधान वाक्य बाँचा है; वह लक्षमें है।
इस प्रश्नके सिवाय बाकीके पत्रोंका उत्तर लिखनेका अनुक्रमसे विचार होते हुए भी हालमें हम उसे समागममें पूछना ही योग्य समझते हैं, अर्थात् यह बता देना हालमें योग्य मालूम होता है।
१ जिस प्रकार नागरिक लोगोंके सुखको पामर लोग नहीं जान सकते, और कुमारी पतिजन्य मुखको नहीं जान सकती, इसी तरह अनुभवके बिना कोई भी नर या नारी भ्यानका सुख नहीं जान सकते।