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श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ३१४, ३१५, ३१६, ३१७
बम्बई, आषाढ वदी १९४८ सम-आत्मप्रदेश स्थितिसे यथायोग्य. पत्र मिले हैं। यहाँ उपाधि नामसे प्रारब्ध उदय है।
उपाधिमें विक्षेपरहित होकर प्रवृत्ति करना, यह बात अत्यंत कठिन है; जो रहती है वह थोड़े ही समयमें परिपक्क समाधिरूप हो जाती है।
शांतिः
३१५ बम्बई, श्रावण सुदी १९४८ जीवको अपना स्वरूप जाने सिवाय छुटकारा नहीं; तबतक यथायोग्य समाधि नहीं । यह जाननेके लिये मुमुक्षुता और ज्ञानीकी पहिचान उत्पन्न होने योग्य है । जो ज्ञानीको यथायोग्यरूपसे पहिचानता है वह ज्ञानी हो जाता है—क्रमसे ज्ञानी हो जाता है । आनन्दघनजीने एक स्थलपर ऐसा कहा है कि
जिन थइ जिनने जे आराधे, ते सहि जिनवर होवे रे;
भुंगी ईलीकाने चटकावे, ते भुंगी जग जोवे रे । जिन होकर अर्थात् सांसारिकभावसंबंधी आत्मभाव त्यागकर जो कोई जिनभगवान्की अर्थात् कैवल्यज्ञानीकी-वीतरागकी-आराधना करता है, वह निश्चयसे जिनवर अर्थात् कैवल्यपदसे युक्त . हो जाता है।
इसके लिये भ्रमरी और लटका प्रत्यक्षसे समझमें आनेवाला दृष्टांत दिया है। __यहाँ हमें भी उपाधि-योग रहता है। यद्यपि अन्य भावमें आत्मभाव उत्पन्न नहीं होता; और यही मुख्य समाधि है।
३१६ बम्बई, श्रावण सुदी ४ बुध. १९४८
आत्मप्रदेश-समस्थितिसे नमस्कार. "जिसमें जगत् सोता है उसमें ज्ञानी जागता है जिसमें ज्ञानी जागता है उसमें जगत् सोता है। जिसमें जगत् जागता है उसमें ज्ञानी सोता है "-ऐसा श्रीकृष्ण कहते हैं।
बम्बई, श्रावण सुदी ५, १९४८ जगत् और मोक्षका मार्ग ये दोनों एक नहीं हैं । जिसे जगत्की इच्छा, रुचि और भावना है, उसे मोक्षकी अनिच्छा, अरुचि और अभावना होती है, ऐसा मालूम होता है।
१ या निशा सर्व भूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥ भ. गीता. तुलना करो-जा णिसि सयलहं देहियई, जोगिउ तहिं जग्गेह । __ जहिं पुणु जग्गइ सयल जगु, सा णिसि मणिवि सुवेई ।।
___ योगीन्द्रदेव-परमात्मप्रकाश २-४७ । इसी भावका द्योतक वाक्य आचारांगसूत्रमें भी मिलता है।
-अनुवादक.