________________
पत्र ३१०, ३११] विविध पत्र आदि संग्रह–२५वाँ वर्ष ३०१
ऐसी ही ईश्वरेच्छा होगी ! ऐसा मानकर जैसी स्थिति प्राप्त होती है वैसे ही योग्य समझकर रहते हैं।
मन तो मोक्षके संबंधमें भी स्पृहायुक्त नहीं है, परन्तु प्रसंग यह रहता है । इस प्रसंगमें 'वनकी मारी कोयल' ऐसी एक गुजरात देशकी कहावत योग्य ही है। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।
बम्बई, ज्येष्ठ १९४८
प्रभु-भक्तिमें जैसे बने तैसे तत्पर रहना, यह मुझे तो मोक्षका धुरंधर मार्ग लगा है; चाहे तो मनसे भी स्थिरतापूर्वक बैठकर प्रभु-भक्ति अवश्य करना योग्य है ।
इस समय तो मनकी स्थिरता होनेका मुख्य उपाय तो प्रभु-भक्ति ही समझो । आगे भी वही और वैसा ही है, तो भी इसे स्थूलतासे लिखकर बताना अधिक योग्य लगता है।
उत्तराध्ययनसूत्रमें दूसरा इच्छित अध्ययन पढ़ना । बत्तीसवें अध्ययनकी प्रारम्भकी चौबीस गाथायें मनन करना।
शम, संवेग, निर्वेद, आस्था, और अनुकंपा इत्यादि सद्गुणोंसे योग्यता प्राप्त करनी चाहिये और किसी समय तो महात्माके संयोगसे धर्म मिल ही जायगा । सत्संग, सत्शास्त्र और सद्वृत्त, ये उत्तम साधन हैं।
(२)
यदि सूयगडंसूत्रकी प्राप्तिका साधन हो तो उसका दूसरा अध्ययन, तथा उदकपेढालवाला अध्ययन पढ़नेका परिचय रखना। तथा उत्तराध्ययनके बहुतसे वैराग्य आदि चरित्रवाले अध्ययन पढ़ते रहना ।
और प्रभातमें जल्दी उठनेका परिचय रखना। एकांतमें स्थिर होकर बैठनेका परिचय रखना । माया अर्थात् जगत्-लोक-का जिसमें अधिक वर्णन किया गया है, ऐसी पुस्तकोंके पढ़नेकी अपेक्षा, जिनमें सत्पुरुषके चरित्र अथवा वैराग्य-कथा विशेषरूपसे हों, ऐसी पुस्तकोंके पढ़नेकी भावना रखना।
जिसके द्वारा वैराग्यकी वृद्धि हो ऐसा बाँचन विशेषरूपसे रखना; मतमतांतरका त्याग करना; और जिससे मतमतांतरकी वृद्धि हो ऐसी पुस्तकें नहीं पढ़ना। असत्संग आदिमें उत्पन्न होती हुई रुचिको हटानेका विचार बारम्बार करना योग्य है।
बम्बई, ज्येष्ठ १९४८ जो विचारवान पुरुषको सर्वथा क्लेशरूप भासित होता है, ऐसे इस संसारमें फिरसे आत्मभावसे जन्म न लेनेकी निश्चल प्रतिज्ञा है। तीनों कालमें अब इसके पश्चात् इस संसारका स्वरूप अन्यथारूपसे भासमान होना योग्य नहीं है, और यह भासमान हो ऐसा तीनों कालमें होना संभव नहीं।