________________
२९९
पत्र ३०७]
विविध पत्र आदि संग्रह-२५वाँ वर्ष जिस भावसे संसारकी उत्पत्ति होती है, वह भाव जिसमेंसे निवृत्त हो गया है, ऐसा ज्ञानी भी बाह्य प्रवृत्तिकी निवृत्ति और सत्समागमके निवासकी इच्छा करता है। जहाँतक इस योगका उदय प्राप्त नहीं होता, वहाँतक जो प्राप्त-स्थितिमें अविषमतासे रहते हैं, ऐसे ज्ञानीके चरणारविन्दकी फिर फिरसे स्मृति आ जानेसे हम उनको परम विशिष्टभावसे नमस्कार करते हैं।
हालमें जिस प्रवृत्ति-योगमें रहते हैं वह बहुत प्रकारकी परेच्छाके कारणसे रहते हैं। आत्मदृष्टिकी अखंडतामें इस प्रवृत्ति-योगसे कोई बाधा नहीं आती; इसलिये उदय आये हुए योगकी ही आराधना करते हैं।
हमारा प्रवृत्ति-योग जिज्ञासुके प्रति कल्याण प्राप्त होनेके संबंधमें किसी प्रकार वियोगरूपसे रहता है।
जिसमें सत्स्वरूप रहता है, ऐसे ज्ञानीमें लोक-स्पृहा आदिका त्याग करके जो भावपूर्वक भी आश्रितरूपसे रहता है, वह निकटरूपसे कल्याणको प्राप्त करता है; ऐसा मानते हैं।
निवृत्तिके समागमकी हम बहुत प्रकारसे इच्छा करते हैं, क्योंकि इस प्रकारके अपने रागको हमने सर्वथा निवृत्त नहीं किया ।
कालका कलिस्वरूप चल रहा है । उसमें अविषमतासे मार्गकी जिज्ञासापूर्वक, बाकी दूसरे अन्य जाननेके उपायोंमें उदासीनतासे बर्ताव करते हुए भी जो ज्ञानीके समागममें रहता है, वह अत्यंत निकटरूपसे कल्याण पाता है, ऐसा मानते हैं।
जगत्, ईश्वर आदि संबंधी प्रश्न हमारे बहुत विशेष समागममें समझने चाहिये ।
इस प्रकारके विचार (कभी कभी) करनेमें हानि नहीं है । कदाचित् उसका यथार्थ उत्तर अमुक कालतक न मिले, तो इस कारण धीरजका त्याग करनेको उद्यत होती हुई मतिको रोक लेना योग्य है।
जहाँ अविषमतासे आत्म-ध्यान रहता है, ऐसे ' श्रीरायचन्द्र ' के प्रति फिर फिरसे नमस्कार करके यह पत्र इस समय हम पूर्ण करते हैं ।
बम्बई, वैशाख १९४८ जो आत्मामें ही रहते हैं ऐसे ज्ञानी पुरुष सहज-प्राप्त प्रारब्धके अनुसार ही प्रवृत्ति करते हैं । वास्तवमें तो बात यह है कि जिस कालमें ज्ञानसे अज्ञान निवृत्त हुआ, उसी कालमें ज्ञानी मुक्त हो जाता है। देह आदिमें अप्रतिबद्ध ज्ञानीको कोई भी आश्रय अथवा आलम्बन नहीं है। धीरज प्राप्त होनेके लिये उसे " ईश्वरेच्छा आदि " भावनाका होना योग्य नहीं है । भक्तिवतको जो कुछ प्राप्त होता है उसमें किसी प्रकारके क्लेशको देखकर, तटस्थ धीरज रहनेके लिये यह भावना किसी प्रकारसे योग्य है। ज्ञानीको तो प्रारब्ध, ईश्वरेच्छा आदि सभी बातोंमें एक ही भाव-समान ही भाव है। उसे साता-असातामें कुछ भी किसी प्रकारसे राग-द्वेष आदि कारण नहीं होते; वह तो दोनोंमें ही उदासीन है। जो उदासीन है, वह मूलस्वरूपमें निरालंबन है और निरालम्बनरूप उसकी उदासीनताको हम ईश्वरेच्छासे भी बलवान मानते हैं।