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पत्र ३०५]
विविध पत्र आदि संग्रह-२५वाँ वर्ष वह तो होगा ही । उसमें समता रक्खोगे तो भी जो होना होगा वह होगा; इसलिये निःशंकतासे निरभिमानी होना ही योग्य है-सम परिणामसे रहना योग्य है, और यही हमारा उपदेश है।
यह जबतक नहीं होता तबतक यथार्थ बोध भी नहीं होता।
बम्बई, वैशाख १९४८ जिनागम उपशमस्वरूप है । उपशमस्वरूप पुरुषोंने उसका उपशमके लिये प्ररूपण किया हैउपदेश किया है । वह उपशम आत्मार्थके लिये है, दूसरे किसी भी प्रयोजनके लिये नहीं । आत्मार्थके लिये यदि उसका आराधन नहीं किया गया, तो उस जिनागमका श्रवण और बाँचन निष्फल जैसा है; यह बात हमें तो निस्संदेह यथार्थ मालूम होती है।
दुःखकी निवृत्ति सभी जीव चाहते हैं, और इस दुःखकी. निवृत्ति, जिससे दुःख उत्पन्न होता है, ऐसे राग, द्वेष और अज्ञान आदि दोषकी निवृत्ति हुए बिना संभव नहीं है । उस राग आदिकी निवृत्ति एक आत्म-ज्ञानको छोड़कर दूसरे किसी भी प्रकारसे भूतकालमें हुई नहीं, वर्तमानकालमें होती नहीं, और भविष्यकालमें हो नहीं सकेगी; ऐसा सब ज्ञानी पुरुषोंको भासित हुआ है । अतएव जीवके लिये प्रयोजनरूप जो आत्म-ज्ञान है, उसका सर्वश्रेष्ठ उपाय सद्गुरूके वचनका श्रवण करना अथवा सत्शास्त्रका विचारना ही है। जो कोई जीव दुःखकी निवृत्तिकी इच्छा करता हो-उसे दुःखसे सर्वथा मुक्ति प्राप्त करनी हो तो उसे एक इसी मार्गकी आराधना करनेके सिवाय और कोई दूसरा उपाय नहीं है। इसलिये जीवको सब प्रकारके मतमतांतरका, कुल-धर्मका, लोक-संज्ञारूप धर्मका, ओघसंज्ञा. रूप धर्मका उदास भावसे सेवन करके, एक आत्म-विचार कर्त्तव्यरूप धर्मका सेवन करना ही योग्य है।
एक बड़ी निश्चयकी बात तो मुमुक्षु जीवको यही करनी योग्य है कि सत्संगके समान कल्याणका अन्य कोई बलवान कारण नहीं है, और उस सत्संगमें निरंतर प्रति समय निवास करनेकी इच्छा करना, असत्संगका प्रत्येक क्षणमें अन्यथाभाव विचारना, यही श्रेयरूप है। बहुत बहुत करके यह बात अनुभवमें लाने जैसी है।
प्रारब्धके अनुसार स्थिति है, इसलिये बलवान उपाधि-योगसे विषमता नहीं आती; अत्यंत . अरुचि हो जानेपर भी, उपशम-समाधि-यथारूप रहती है; तथापि निरंतर ही चित्तमें सत्संगकी भावना रहा करती है। सत्संगका अत्यंत माहाम्य जो पूर्वभवमें वेदन किया है, वह फिर फिरसे स्मृतिमें आ जाता है; और निरंतर अभंगरूपसे वह भावना स्फुरित रहा करती है ।
जबतक इस उपाधि-योगका उदय है, तबतक समवस्थापूर्वक उसे निबाहना, ऐसा प्रारब्ध है; तथापि जो काल व्यतीत होता है वह प्रायः उसके त्यागके भावमें ही व्यतीत होता है।
निवृत्ति जैसे क्षेत्रमें चित्तकी स्थिरतापूर्वक यदि हालमें सूत्रकृतांगसूत्रके श्रवण करनेकी इच्छा हो तो श्रवण करनेमें कोई बाधा नहीं। वह केवल जीवके उपशमके लिये ही करना योग्य है । किस मतकी विशेषता है, और किस मतकी न्यूनता है, ऐसे परार्थमें पड़नेके लिये उसका श्रवण करना योग्य नहीं है।
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