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श्रीमद् राजचन्द्र
[पत्र ३०४
(२) सब प्रकारसे उपाधि-योगको तो निवृत्त करना ही योग्य है; तथापि यदि उस उपाधि-योगकी सत्संग आदिके लिये ही इच्छा की जाती हो, तथा पिछली चित्त-स्थिति समभावसे रहती हो तो उस उपाधि-योगमें प्रवृत्ति करना श्रेयस्कर है।
____ अप्रतिबद्ध प्रणाम.
३०४
बम्बई, वैशाख १९४८ चाहे कितनी ही विपत्तियाँ क्यों न पड़ें, तथापि ज्ञानीद्वारा सांसारिक
फलकी इच्छा करनी योग्य नहीं. उदय आये हुए अंतरायको सम-परिणामसे वेदन करना योग्य है, विषम-परिणामसे वेदन करना योग्य नहीं।
तुम्हारी आजीविकासंबंधी स्थिति बहुत समयसे मालूम है; यह पूर्वकर्मका योग है।
जिसे यथार्थ ज्ञान है, ऐसा पुरुष अन्यथा आचरण नहीं करता; इसलिये तुमने जो आकुलताके कारण इच्छा प्रगट की है, उसे निवृत्त करना ही योग्य है।
___ यदि ज्ञानीके पास सांसारिक वैभव हो तो भी मुमुक्षुको उसकी किसी भी प्रकारसे इच्छा करना योग्य नहीं है । प्रायः करके यदि ज्ञानीके पास ऐसा वैभव होता है तो वह मुमुक्षुकी विपत्ति दूर करनेके लिये उपयोगी होता है । पारमार्थिक वैभवसे ज्ञानी, मुमुक्षुको सांसारिक फल देनेकी इच्छा नहीं करता; क्योंकि ज्ञानी अकर्त्तव्य नहीं करते ।।
हम जानते हैं कि तुम्हारी इस प्रकारकी स्थिति है कि जिसमें धीरज रहना कठिन है; ऐसा होनेपर भी धीरजमें एक अंशकी भी न्यूनता न होने देना, यह तुम्हारा कर्त्तव्य है; और यही यथार्थ बोध पानेका मुख्य मार्ग है।
___ हालमें तो हमारे पास ऐसा कोई सांसारिक साधन नहीं है कि हम उस मार्गसे तुम्हारे लिये धीरजके कारण हो सकें, परन्तु ऐसा प्रसंग लक्षमें रक्खेंगे; बाकीके दूसरे प्रयत्न करने योग्य ही नहीं हैं।
किसी भी प्रकारका भविष्यका सांसारिक विचार छोड़कर वर्तमानमें समतापूर्वक प्रवृत्ति करनेका दृढ़ निश्चय करना ही तुम्हें योग्य है; भविष्यमें जो होना होगा, वह होगा, वह तो अनिवार्य है, ऐसा मानकर परम पुरुषार्थकी ओर सन्मुख होना ही योग्य है ।
किसी प्रकारसे भी लोकलजारूपी इस भयके स्थान ऐसे भविष्यको विस्मरण करना ही योग्य है । उसकी चिंतासे परमार्थका विस्मरण होता है; और ऐसा होना महा आपत्तिरूप है; इसलिये इतना ही बारम्बार विचारना योग्य है कि जिससे वह आपत्ति न आये । बहुत समयसे आजीविका और लोकलज्जाका खेद तुम्हारे अंतरमें इकट्ठा हो रहा है, इस विषयमें अब तो निर्भयपना ही अंगीकार करना योग्य है । फिरसे कहते हैं कि यही कर्तव्य है । पथार्थ बोधका यही मुख्य मार्ग है । इस स्थलमें भूल खाना योग्य नहीं है।
लज्जा और आजीविका मिथ्या हैं । कुटुम्ब आदिका ममत्व रक्खोगे तो भी जो होना होगा