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श्रीमद् राजचन्द्र
[ पत्र २२८, २२९
चार वेद तथा पुराण आदि शास्त्र सब मिथ्या शास्त्र हैं, यह बात, जहाँ सिद्धांतके भेदोंका वर्णन किया है, वहाँ नंदिसूत्रमें कही है। ज्ञान तो ज्ञानीको ही होता है, और यही ठीक बैठता भी है । हे सब भव्यो ! सुनो, जिनवरने इसे ही ज्ञान कहा है ॥ ७ ॥
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न कोई व्रत किया, न कोई पञ्चक्खाण किया, और न किसी वस्तुका त्याग ही किया; परन्तु ठाणांगसूत्र देख लो, श्रेणिक आगे जाकर महापद्मतीर्थंकर होगा । उसने अनंत भवोंको छेद दिया ॥ ८ ॥
( २ )
दृष्टि-विष नष्ट होनेके बाद चाहे जो शास्त्र हो, चाहे जो कथन हो, चाहे जो वचन हो, और चाहे जो स्थल हो, वह प्रायः अहितका कारण नहीं होता ।
( प्रश्न )
फैलदय झीश खांदी ईश्रो ? आंझीश झषे i ? थेपे फयार खेय ?
प्रथम जीव क्यांथी आव्यो !
अंते जीव जशे क्यां तेने पमाय केम !
२२८
من
( उत्तर )
आज्ञल नायदी ( ब्लीयथ् फुलुसोध्यययांदी ). झख्रां.
हल्दी.
अक्षरधामथी ( श्रीमत् पुरुषोत्तममांथी ). जशे त्यां.
सद्गुरुथी.
२२९
२ पहले जीव कहाँसे आया ? अंतमें जीव कहाँ जायगा १ उसे कैसे पाया जाय ?
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रालज, भाद्रपद १९४७
ॐ
सत्
ज्ञान वही है कि जहाँ एक ही अभिप्राय हो; प्रकाश थोड़ा हो अथवा ज्यादा, परन्तु प्रकाश
एक ही है ।
ववाणी, भाद्र वदी ४ भौम. १९४७
शास्त्र आदिके ज्ञानसे निस्तारा नहीं, परन्तु निस्तारा अनुभव -ज्ञानसे है ।
चार वेद पुराण आदि शास्त्र सौ मिथ्यात्वना, श्रीनंदिसूत्रे भाखियां छे, भेद ज्यां सिद्धांतना;
पण ज्ञानीने ते ज्ञान भाख्यां, एज ठेकाणे ठरो, जिनवर कहे छे शान तेने, सर्व भव्यो सांभळो ॥ ७ ॥ व्रत नहिं पश्चक्खाण नहिं नहिं त्याग वस्तु कोईनो, महापद्मतीर्थकर थशे, श्रेणिक ठाणंग जोई ल्यो; छेयो अनंता
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१ यहाँ प्रश्न और उत्तर दोनों लिखे हैं। पहला शब्द ' लदय' है । इस शब्दका मूल 'प्रथम' शब्द है । इस प्रथम शब्दसे ही प्लदय बना है। इसका क्रम यह है कि मूल अक्षरके आगेका एक एक अक्षर लेना चाहिये । जैसे प के आगे फ, र के आगे ल, थ के आगे द, म आगे य लेना चाहिये । इस क्रमसे अक्षरोंके लेनेसे 'प्रथम' से
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लदय' बनता है । इसी तरह दूसरे शब्दोंके लिये भी समझना चाहिये । अनुवादक.
अक्षरधामसे ( श्रीमत् पुरुषोत्तममैसे ).
वहीं जायगा. सद्गुरुसे.