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पत्र २६७,२६८,२६९,२५० ] विविध पत्र आदि संग्रह-२५वाँ वर्ष
२७१ दूसरे काममें प्रवृत्ति करते हुए भी अन्यत्वभावनासे बर्ताव करनेका अभ्यास रखना योग्य है ।
वैराग्यभावनासे भूषित शातसुधारस आदि ग्रन्थ निरन्तर चिंतन करने योग्य हैं । प्रमादमें वैराग्यकी तीव्रता-मुमुक्षुता-को मंद करना योग्य नहीं, ऐसा निश्चय रखना योग्य है। श्रीबोधस्वरूपं.
२६८ बम्बई, माघ सुदी ५ बुध. १९४८ अनंतकालसे अपने स्वरूपका विस्मरण होनेसे जीवको अन्यभावका अभ्यास हो गया है । दीर्घकालतक सत्संगमें रहकर बोध-भूमिकाका सेवन होनेसे वह विस्मरण और अन्यभावका अभ्यास दूर होता है, अर्थात् अन्यभावसे उदासीनता प्राप्त होती है । इस कालके विषम होनेसे अपने रूपमें तन्मयता रहनी कठिन है, तथापि सत्संगका दीर्घकालीन सेवन तन्मयता प्राप्त करा सकता है, इसमें सन्देह नहीं होता।
जिन्दगी अल्प है, और जंजाल अनन्त है; संख्यात धन है, और तृष्णा अनन्त है; वहाँ स्वरूप-स्मृति संभव नहीं हो सकती; परन्तु जहाँ जंजाल अल्प है, और जिन्दगी अप्रमत्त है, तथा तृष्णा अल्प है, अथवा है ही नहीं, और सर्वसिद्धि है, वहाँ पूर्ण स्वरूप-स्थिति होनी संभव है। अमूल्य जैसा यह ज्ञान जीवन-प्रपंचसे आवृत होकर बहा चला जा रहा है । उदय बलवान है।
२६९ बम्बई, माघ सुदी १३ बुध. १९४८
(राग-प्रभाती) जीचे नवि पुग्गली नैव पुग्गल कदा, पुग्गलाधार नहीं तास रंगी, पर तणो ईश नहीं अपर ऐश्वर्यता, वस्तुधर्मे कदा न परसंगी।
(श्रीसुमतिनाथनुं स्तवन–देवचन्द्रजी)
२७०
बम्बई, माघ वदी २ रवि. १९४८
अत्यन्त उदास परिणामसे रहनेवाले चैतन्यको, ज्ञानी लोग प्रवृत्तिमें होनेपर भी वैसा ही रखते हैं, फिर भी ऐसा कहा गया है:
माया दुस्तर है, दुरंत है, क्षणभर भी एक समयके लिये भी इसको आत्मामें स्थान देना योग्य नहीं; ऐसी तीव्र दशा आनेपर अत्यन्त उदास परिणाम उत्पन्न होता है; और ऐसे उदास परिणामकी प्रवृत्ति (गृहस्थपनेसे युक्त ) अबंध-परिणामी कह जाने योग्य है । जो बोध-स्वरूपमें स्थित है, वह मुश्किलसे इस तरहकी प्रवृत्ति कर सकता है, क्योंकि उसको तो परम वैराग्य है। ... विदेहीपनेसे जो राजा जनककी प्रवृत्ति थी, वह अत्यन्त उदास परिणामके कारण ही थी; प्रायः
१ इस पदके भके लिये देखो पत्र नं. २७० ( २ ). अनुवादक.