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श्रीमद् राजचन्द्र
पत्र २८९, २९०, २९१, २९२
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बम्बई, फाल्गुन वदी १० बुध. १९४८
उपाधि उदयरूपसे है । जिससे पूर्वकर्म तुरत ही निवृत्त हों, ऐसा करते हैं ।
(२) किसी भी प्रकारसे सत्संगका योग बने तो उसे किये रहना यही कर्तव्य है, और जिस कारसे जीवको अपनापन विशेष हुआ करता हो अथवा वह बढ़ा करता हो, तो उस प्रकारसे जैसे ने तैसे संकोच करते रहना, यह भी सत्संगमें फल देनेवाली भावना है।
२९० बम्बई, सोमवती अमावस्या फा. वदी सोम.१९४८
हम जानते हैं कि जो परिणाम बहुत समयमें प्राप्त होनेवाला है, वह उससे थोड़े समयमें प्राप्त होनेके लिये ही यह उपाधि-योग विशेषरूपसे रहता है।
हालमें हम यहाँ व्यावहारिक काम तो प्रमाणमें बहुत करते हैं, उसमें मन भी पूरी तरहसे देते हैं; तो भी वह मन व्यवहारमें लगता नहीं है; अपने ही विषयमें रहता है; इसलिये व्यवहार बहुत बोझारूप रहता है। समस्त लोक तीनों कालमें दुःखसे पीड़ित माना गया है, और उसमें भी यह काल रहता है, यह तो महादुःषम काल है; और सर्वथा विश्रांतिका कारण कर्त्तव्यरूप जो श्रीसत्संग' है, वह तो सर्वकालमें प्राप्त होना दुर्लभ ही है; फिर वह इस कालमें प्राप्त होना बहुत बहुत ही दुर्लभ हो, इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है । हमारा मन प्रायः क्रोधसे, मानसे, मायासे, लोभसे, हास्यसे, रतिसे, अरतिसे, भयसे, शोकसे, जुगुप्सासे अथवा शब्द आदि विषयोंसे अप्रतिबंध जैसा है; कुटुम्बसे, धनसे, पुत्रसे, वैभवसे, स्त्रीसे, अथवा देहसे मुक्त जैसा है; उस मनका भी सत्संगमें बंधन रखना बहुत बहुत रहा करता है।
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बम्बई, चैत्र सुदी २ बुध. १९४८ यह लोक-स्थिति ही ऐसी है कि उसमें सत्यकी भावना करना परम कठिन है । समस्त रचना असत्यके आग्रहकी भावना करानेवाली है।
लोक-स्थिति आश्चर्यकारक है। ज्ञानीको सर्वसंग-परित्याग करनेका हेतु क्या होगा !
२९२ बम्बई, चैत्र सुदी ९ बुध. १९४८ किन्हीं किन्हीं दुःखके प्रसंगोंमें ग्लानि हो आती है और उसके कारण वैराग्य भी रहा करता है, परन्तु जीवका सच्चा कल्याण और सुख तो ऐसा समझनेमें मालूम होता है कि इस सब ग्लानिका कारण अपना