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पत्र २९९, ३००, ३०१] विविध पत्र आदि संग्रह-२५वाँ वर्ष
२९३ जिसे सच्चा आत्म-भान हो जाता है उसकी ' मैं अन्य-भावका अकर्ता हूँ' ऐसा बोध उत्पन्न होनेकी जो अहंप्रत्यय-बुद्धि है, उसका विलय हो जाता है ।
ऐसा ही समुज्ज्वल आत्म-भान बारम्बार रहा करता है, तथापि जैसेकी इच्छा करते हैं वैसा तो नहीं।
समाधिरूप.
२९९ बम्बई, वैशाख सुदी ५ रवि. १९४८ हालमें तो अनुक्रमसे उपाधि-योग विशेष रहा करता है ।
अनंतकाल व्यवहार करनेमें व्यतीत किया है, तो फिर उसकी जंजालमें, जिससे परमार्थका विसर्जन न किया जाय उसी तरह बर्ताव करना, ऐसा जिसका निश्चय हो गया है, उसे वैसे ही होता है, ऐसा हम मानते हैं ।
वनमें उदासीनतासे स्थित योगीजन और तीर्थंकर आदिके आत्मत्वकी याद आती है ।
३०० बम्बई, वैशाख सुदी १२ रवि. १९४८ १. मनमें बारम्बार विचारसे निश्चय हो रहा है कि किसी भी प्रकारसे उपयोग फिरकर अन्यभावमें अपनापन नहीं होता; और अखण्ड आत्म-ध्यान रहा करता है, ऐसी दशामें विकट उपाधियोगका उदय आश्चर्यकारक है। हालमें तो थोड़े क्षणोंकी निवृत्ति भी मुश्किलसे ही रहती है; और प्रवृत्ति कर सकनेकी योग्यतावाला तो चित्त है नहीं, और हालमें ऐसी प्रवृत्ति करना यही कर्तव्य है, तो उदासीनतासे ऐसा करते हैं; मन कहीं भी नहीं लगता, और कुछ भी अच्छा नहीं लगता ।
२. निरूपम आत्म-ध्यान जो तीर्थंकर आदिने किया है, वह परम आश्चर्यकारक है । उस कालमें भी आश्चर्यकारक था । अधिक क्या कहा जाय ! 'वनकी मारी कोयल' की कहावतके अनुसार इस कालमें और इस प्रवृत्तिमें हम पड़े हैं ।
३०१ . बम्बई, वैशाख वदी ६ भौम. १९४८ ज्ञानीसे यदि किसी भी प्रकारसे धन आदिकी वाँछा रक्खी जाती है, तो जीवको दर्शनावरणीय कर्मका प्रतिबंध विशेष उत्पन्न होता है । ज्ञानी तो प्रायः इस तरह ही प्रवृत्ति करता है कि जिससे अपनेसे किसीको ऐसा प्रतिबंध न हो।
ज्ञानी अपना उपजीवन-आजीविका-भी पूर्वकर्मके अनुसार ही करता हैजिससे ज्ञानमें प्रतिबद्धता आये इस तरहकी आजीविका नहीं करता, अथवा इस तरह आजीविका करानेके प्रसंगकी इच्छा नहीं करता, ऐसा मानते हैं।
जिसे ज्ञानीके प्रति सर्वथा निस्पृह भक्ति है; उससे अपनी इच्छा पूर्ण होती हुई न देखकर भी