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श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र २९६, २९७, २९८ 'सत् शास्त्र' के प्रति, और परेच्छासे परमार्थके निमित्त कारण ' दान आदि ' के प्रति रही है । आत्मा तो कृतार्थ हुआ जाब पड़ता है।
२९६ बम्बई, चैत्र वदी ५ रवि. १९४८ जगत्के अभिप्रायको देखकर जीवने पदार्थका बोध प्राप्त किया है। ज्ञानीके अभिप्रायको देखकर नहीं प्राप्त किया । जो जीव ज्ञानीके अभिप्रायसे
__ बोध पाता है, उस जीवको सम्यग्दर्शन होता है. मार्ग हम दो प्रकारके मानते हैं । एक उपदेश प्राप्तिका मार्ग और दूसरा वास्तविक मार्ग । विचारसागर उपदेश-प्राप्तिके लिये विचारने योग्य ग्रंथ है । जब हम जैन शास्त्रोंको बाँचनेके लिये कहते हैं तब जैनी होनेके लिये नहीं कहते; जब वेदांत शास्त्र बाँचनेके लिये कहते हैं तो वेदांती होनेके लिये नहीं कहते; इसी तरह अन्य शास्त्रोंको बाँचनेके लिये जो कहते हैं तो अन्य होनेके लिये नहीं कहते । जो कहते हैं वह केवल तुम सब लोगोंको उपदेश देनेके लिये ही कहते हैं। हालमें जैन और वेदांती आदिके भेदका त्याग करो। आत्मा वैसी नहीं है।
२९७ बम्बई, चैत्र वदी १२ रवि. १९४८ जहाँ पूर्ण-कामता है, वहाँ सर्वज्ञता है. जिसे बोध-बीजकी उत्पत्ति हो जाती है, उसे स्वरूप-सुखसे परितृप्ति रहती है, और विषयके प्रति अप्रयत्न दशा रहती है।
जिस जीवनमें क्षणिकता है, उसी जीवनमें ज्ञानियोंने नित्यता प्राप्त की है, यह अचरजकी बात है। यदि जीवको परितृप्ति न रहा करती हो तो उसे अखंड आत्म-बोध हुआ नहीं समझना ।
२९८ वम्बई, वैशाख सुदी ३ शुक्र.१९४८ अक्षय तृतीया
भाव-समाधि है; बाह्य उपाधि है; जो भावको गौण कर सके ऐसी वह स्थितिवाली है; तथापि समाधि रहती है।
(२) हमने जो पूर्ण-कामताके विषयमें लिखा है, वह इस आशयसे लिखा है कि जिस प्रमाणसे ज्ञानका प्रकाश होता जाता है, उस प्रमाणसे शब्द आदि व्यावहारिक पदार्थोसे निस्पृहता आती जाती है। आत्म-सुखके कारण परितृप्ति रहती है। अन्य किसी भी सुखकी इच्छा न होनी यह पूर्ण ज्ञानका लक्षण है।
ज्ञानी अनित्य जीवनमें नित्यता प्राप्त करता है, ऐसा जो लिखा है वह इस आशयसे लिखा है कि उसे मृत्युसे भी निर्भयता रहती है। जिसे ऐसा हो जाय उसे फिर अनित्यता रही है, ऐसा न कहें, तो यह बात सत्य ही है।