________________
. श्रीमद् राजवन्द्र
[पत्र २७० उन्हें वह स्वभावतः आत्मामेंसे हुई थी, तथापि मायाके किसी दुरंत प्रसंगमें जैसे समुद्रमें नाव यत्किचित् डोलायमान होती है, वैसे ही परिणामोंका डोलायमान होना संभव होनेसे, प्रत्येक मायाके प्रसंगमें जिसकी सर्वथा उदास अवस्था थी, ऐसे निजगुरु अष्टावक्रकी शरण स्वीकार करनेके कारण, वे मायाको आसानीसे पार कर सकने योग्य हो सके थे; क्योंकि महात्माके आलम्बनका ऐसा ही प्राबल्य है।
(२) (१) यदि तुम और हम ही लौकिक दृष्टिसे प्रवृत्ति करेंगे तो फिर अलौकिक .
दृष्टिसे प्रवृत्ति कौन करेगा? आत्मा एक है अथवा अनेक; कर्ता है या अकर्ता; जगत्का कोई कर्ता है अथवा जगत् स्वतः ही उत्पन्न हुआ है; इत्यादि बातें क्रमपूर्वक सत्संग होनेपर ही समझने योग्य हैं; ऐसा समझकर इस विषयमें हालमें पत्रद्वारा नहीं लिखा ।
सम्यक् प्रकारसे ज्ञानीमें अखंड विश्वास रखनेका फल निश्चयसे मुक्ति है। ___ संसारसंबंधी तुम्हें जो जो चिंतायें हैं, उन चिंताओंको प्रायः हम जानते हैं, और इस विषयमें तुम्हें जो अमुक अमुक विकल्प रहा करते हैं, उन्हें भी हम जानते हैं । इसी तरह सत्संगके वियोगके कारण तुम्हें परमार्थ-चिंता भी रहा करती है, उसे भी हम जानते है; दोनों ही प्रकारके विकल्प होनेसे तुम्हें आकुलता-व्याकुलता रहा करती है, इसमें भी आश्चर्य नहीं मालूम होता, अथवा असंभवता नहीं मालूम होती । अब इन दोनों ही प्रकारोंके विषयमें जो कुछ मेरे मनमें है; उसे खुले शब्दोंमें नीचे लिखनेका प्रयत्न किया है।
संसारसंबंधी जो तुम्हें चिंता है, उसे ज्यों ज्यों वह उदयमें आये, त्यों त्यों उसे वेदन करना-सहन करना-चाहिये । इस चिंताके होनेका कारण ऐसा कोई कर्म नहीं है कि जिसे दूर करनेके लिये ज्ञानी पुरुषको प्रवृत्ति करते हुए बाधा न आये । जबसे यथार्थ बोधकी उत्पत्ति हुई है, तभीसे किसी भी प्रकारके सिद्धि-योगसे अथवा विद्याके योगसे निजसंबंधी अथवा परसंबंधी सांसारिक साधन न करनेकी प्रतिज्ञा ले रक्खी है। और यह याद नहीं पड़ता कि इस प्रतिज्ञामें अबतक एक पलभरके लिये भी मंदता आई हो । तुम्हारी चिंता हम जानते हैं, और हम उस चिंताके किसी भी भागको जितना बन सके उतना वेदन करना चाहते हैं। परन्तु ऐसा तो कभी हुआ नहीं, वह अब कैसे हो ! हमें भी उदयकाल ऐसा ही रहता है कि हालमें ऋद्धि-योग हाथमें नहीं है।
प्राणीमात्र प्रायः आहार-पानी पा जाते हैं, तो फिर तुम जैसे प्राणीको कुटुम्बके लिये इससे विरुद्ध परिणाम आये, ऐसा सोचना कदापि योग्य ही नहीं है। कुटुम्बकी लाज बारम्बार बीचमें आकर जो आकुलता पैदा करती है, उसे चाहे तो रक्खो अथवा न रक्खो, तुम्हारे लिये दोनों ही समान हैं; क्योंकि जिसमें अपनी लाचारी है, उसमें तो जो हो सके उसे ही योग्य मानना, यही दृष्टि सम्यक् है।
हमें जो निर्विकल्प नामकी समाधि है, वह तो आत्माकी स्वरूप-परिणति रहनेके कारण ही है। मात्माके स्वरूपके संबंधमें तो हममें प्रायः करके निर्विकल्पता ही रहना संभव है, क्योंकि अन्य भावमें मुख्यतः हमारी बिलकुल भी प्रवृत्ति नहीं है।