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पत्र २७४, २७५, २७६, २०७] विविध पत्र आदि संग्रह-२५ वाँ वर्ष
२७४ बम्बई, माघ वदी ११ बुध. १९४८ मुद्धता विचारे ध्यावे, सुद्धतामें केलि करै, सुद्धतामें थिर व्है अमृतधारा बरसै । ( समयसार-नाटक )
२७५ बम्बई, माघ वदी १४ शनि. १९४८ अद्भुत दशाके काव्यका जो अर्थ लिखकर भेजा है वह यथार्थ है । अनुभवकी ज्यों ज्यों सामर्थ्य उत्पन्न होती जाती है त्यों त्यों ऐसे काव्य, शब्द, वाक्य याथातथ्यरूपसे परिणमते जाते हैं। इसमें आश्चर्यकारक दशाका वर्णन है।
जीवको सत्पुरुषकी पहिचान नहीं होती और उसके प्रति भी अपने जैसी व्यावहारिक कल्पना रहती है । जीवकी यह कल्पना किस उपायसे दूर हो, सो लिखना। उपाधिका प्रसंग बहुत रहता है। सत्संगके बिना जी रहे हैं।
- २७६ बम्बई, माघ वदी १४ रवि. १९४८ लैबेकौं न रही गैर, त्यागिवेकौं नाहीं और,
बाकी कहा उबौँ जु, कारज नवीनौ है। स्वरूपका भान होनेसे पूर्णकामता प्राप्त हुई; इसलिये अब किसी भी जगहमें कुछ भी लेनेके लिये नहीं रहा । मूर्ख भी अपने रूपका तो कभी भी त्याग करनेकी इच्छा नहीं करता; और जहाँ केवल स्वरूप-स्थिति है वहाँ तो फिर दूसरा कुछ रहा ही नहीं; इसलिये त्यागकी भी जरूरत नहीं रही। इस तरह जब कि लेना, देना ये दोनों ही निवृत्त हो गये तो दूसरा कोई नवीन कार्य करनेके लिये फिर बचा ही क्या ? अर्थात् जैसा होना चाहिये वैसा हो गया तो फिर दूसरी लेनेदेनेकी जंजाल कहाँसे हो सकती है ? इसीलिये ऐसा कहा गया है कि यहाँ पूर्णकामता प्राप्त हुई है।
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, बम्बई, माघ वदी १९४८
एक क्षणके लिये भी कोई अप्रिय करना नहीं चाहता, तथापि वह करना पड़ता है, यह बात ऐसा सूचित करती है कि पूर्वकर्मका कोई निबंधन अवश्य है।
अविकल्प समाधिका ध्यान क्षणभरके लिये भी नहीं मिटता; तथापि अनेक वर्ष हुए विकल्परूप उपाधिको आराधना करते जाते हैं ।
जबतक संसार है तबतक किसी तरहकी उपाधि होना तो संभव है; तथापि अविकल्प समाधिमें स्थित ज्ञानीको तो वह उपाधि भी कोई बाधा नहीं करती, अर्थात् उसे तो समाधि ही है।