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श्रीमद् राजचन्द्र
[ पत्र २४४, २४५, २४६
तुम लोग भी, जो हमें जानते हैं उन लोगोंके सिवाय अधिक लोगोंको, हमें नाम, स्थान और गाँवसे
बताना नहीं ।
२७०
एकसे अनंत है; जो अनन्त है वह एक है ।
२४४
आदि- पुरुष खेल लगाकर बैठा है
एक आत्म-वृत्तिके सिवाय नया- पुराना तो हमारे है कहाँ ? और उसके लिखने जितना मनको अवकाश भी कहाँ है ? नहीं तो सभी कुछ नया ही है, और सभी कुछ पुराना है ।
ववाणी, आसोज वदी ५, १९४७
२४५ ववाणीआ, आसोज वदी १० सोम. १९४७
ॐ
( १ ) परमार्थ - विषय में मनुष्योंका पत्र-व्यवहार अधिक चलता है; और हमें वह अनुकूल नहीं आता । इस कारण बहुतसे उत्तर तो लिखे ही नहीं जाते; ऐसी हरि इच्छा है; और हमें यह बात प्रिय भी है ।
(२) एक दशासे प्रवृत्ति है; और यह दशा अभी बहुत समयतक रहेगी । उस समयतक उदयानुसार प्रवृत्ति करना योग्य समझा है; इसलिये किसी भी प्रसंगपर पत्र आदिकी पहुँच मिलनेमें यदि विलम्ब हो जाय अथवा पहुँच न दी जाय, अथवा कुछ उत्तर न दिया जाय, तो उसके लिये खेद करना योग्य नहीं, ऐसा निश्चय करके ही हमसे पत्र - व्यवहार रखना ।
२४६
ववाणीआ, आसोज वदी १९४७
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( १ ) यही स्थिति - यही भाव और यही स्वरूप है । भले ही आप कल्पना करके दूसरी राह ले लें किन्तु यदि यथार्थ चाहते हो तो यह.... लो ।
विभंग ज्ञान - दर्शन अन्य दर्शनमें माना गया है। इसमें मुख्य प्रवर्त्तकोंने जिस धर्म - मार्गका बोध दिया है, उसके सम्यक् होनेके लिये स्यात् मुद्राकी आवश्यकता है ।
स्यात् मुद्रा स्वरूपस्थित आत्मा है । श्रुतज्ञानकी अपेक्षा स्वरूपस्थित आत्मासे कही हुई शिक्षा है । ( २ ) पुनर्जन्म है - ज़रूर है - इसके लिये मैं अनुभवसे हाँ कहने में अचल हूँ ।
( ३ ) इस कालमें मेरा जन्म लेना, मानूँ तो दुःखदायक है, और मानूँ तो सुखदायक भी है। ( ४ ) अब ऐसा कोई बाँचन नहीं रहा कि जिसे बाँचनेकी जरूरत हो। जिसके संगमें आकर तद्रूपकी प्राप्ति हो जाया करती थी, ऐसे संगकी इस कालमें न्यूनता हो गई है ।
विकराल काल ! ......
......... विकराल कर्म !
विकराल आत्मा !............
..जैसे................ परंतु इस तरह. अब ध्यान रक्खो । यही कल्याण है ।
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