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श्रीमद् राजचन्द्र
[पत्र २६३, २६४ २६३ बम्बई, पौष सुदी ७ गुरु. १९४८ ज्ञानीकी आत्माका अवलोकन करते हैं; और वैसे ही हो जाते हैं.
आपकी स्थिति लक्षमें है । अपनी इच्छा भी लक्षमें है। गुरु-अनुग्रहवाली जो बात लिखी है, वह भी सत्य है। कर्मका उदय भोगना पड़ता है, यह भी सत्य ही है । आपको पुनः पुनः अतिशय
खेद होता है, यह भी जानते हैं। आपको वियोगका असह्य ताप रहता है, यह भी जानते हैं । बहुत प्रकारसे सत्संगमें रहना योग्य है, ऐसा मानते हैं, तथापि हालमें तो ऐसा ही सहन करना योग्य माना है।
चाहे जैसे देश-कालमें यथायोग्य रहना-यथायोग्य रहनेकी ही इच्छा करना-यही उपदेश है । तुम अपने मनकी कितनी भी चिन्ता क्यों न लिखो तो भी हमें तुम्हारे ऊपर खेद नहीं होगा। ज्ञानी अन्यथा नहीं करता, अन्यथा करना उसे सूझता भी नहीं; फिर दूसरे उपायकी इच्छा भी नहीं करना, ऐसा निवेदन है।
कोई इस प्रकारका उदय है कि अपूर्व वीतरागता होनेपर भी व्यापारसंबंधी कुछ प्रवृत्ति कर सकते हैं, तथा दूसरी खाने-पीनेकी प्रवृत्ति मुश्किलसे कर सकते हैं। मनको कहीं भी विश्राम नहीं मिलता; प्रायः करके वह यहाँ किसीके समागमकी इच्छा नहीं करता । कुछ लिखा नहीं जा सकता। अधिक परमार्थ-वाक्य बोलनेकी इच्छा नहीं होती । किसीके पूँछे हुए प्रश्नोंके उत्तर जाननेपर भी लिख नहीं सकते; चित्तका भी अधिक संग नहीं है; आत्मा आत्म-भावसे रहती है ।
प्रति समयमें अनंत गुणविशिष्ट आत्मभाव बढ़ता जाता हो, ऐसी दशा है । जो प्रायः समझने में नहीं आती अथवा इसे जान सकें ऐसे पुरुषका समागम नहीं है ।
श्रीवर्धमानकी आत्माको स्वाभाविक स्मरणपूर्वक प्राप्त हुआ ज्ञान था, ऐसा मालूम होता है। पूर्ण वीतरागका-सा बोध हमें स्वाभाविक ही स्मरण हो आता है, इसीलिये ००० हमने ०००० लिखा था कि तुम ‘पदार्थ ' को समझो । ऐसा लिखनेमें और कोई दूसरा अभिप्राय न था ।
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बम्बई, पौष सुदी ११ सोम. १९४८
स्वरूप स्वभावमें है । ज्ञानीके चरण-सेवनके बिना अनन्तकालतक भी प्राप्त न हो सके, ऐसा वह दुर्लभ भी है । आत्म-संयमका स्मरण करते रहते हैं। यथारूप वीतरागताकी पूर्णताकी इच्छा करते हैं।
हम और तुम हालमें प्रत्यक्षरूपसे वियोगमें रहा करते हैं । यह भी पूर्व-निबंधनका कोई बड़ा प्रबंध उदयमें होनेके ही कारणसे हुआ मालूम होता है ।
हम कभी कोई काव्य, पद अथवा चरण लिखकर भेजें और यदि आपने उन्हें कहीं अन्यत्र बाँचा अथवा सुना भी हो, तो भी उन्हें अपूर्व ही समझें । हम स्वयं तो हालमें यथाशक्य ऐसा कुछ करनेकी इच्छा करने जैसी दशामें नहीं हैं।
श्रीबोधस्वरूपका यथायोग्य.