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श्रीमद् राजचन्द्र
[पत्र २२६
आत्मा जबतक बंध और मोक्षके संबंधसे अज्ञात रहती है, तबतक अपने स्वभावका त्याग ही रहता है, यह जिनभगवान्ने कहा है ॥ ४॥
___ आत्मा अपने पदकी अज्ञानतासे बंधके प्रसंगमें प्रवृत्ति करती है, परन्तु इससे आत्मा स्वयं जड़ नहीं हो जाती, यह सिद्धांत प्रमाण है ॥५॥
___ अरूपी रूपीको पकड़ लेता है, यह बहुत आश्चर्यकी बात है; जीव बंधनको जानता ही नहीं, यह कैसा अनुपम जिनभगवान्का सिद्धांत है ॥ ६॥
पहले देह-दृष्टि थी इससे देह ही देह दिखाई देती थी, परन्तु अब आत्मामें दृष्टि हो गई है, इसलिये देहसे स्नेह दूर हो गया है ॥ ७ ॥
जड़ और चेतनका यह संयोग अनादि अनंत है; उसका कोई भी कर्ता नहीं है, यह जिनभगवान्ने कहा है ॥ ८॥
मूलद्रव्य न तो उत्पन्न ही हुआ था, और न कभी उसका नाश ही होगा, यह अनुभवसे सिद्ध है, ऐसा जिनवरने कहा है ॥९॥
जो वस्तु मौजूद है उसका नाश नहीं होता, और जिस वस्तुका सर्वथा अभाव है उसकी उत्पत्ति नहीं हो सकती; पदार्थोकी अवस्था देखो, जो बात एक समयके लिये है वह हमेशाके लिये है ॥१०॥
(२) परम पुरुष, सद्गुरु, परम ज्ञान और सुखके धाम जिस प्रभुने निजका ज्ञान दिया, उसे सदा प्रणाम है ॥ १॥
(३) जिस जिस प्रकारसे आत्माका चितवन किया हो, वह उसी उसी प्रकारसे प्रतिभासित होती है ।
विषयातपनेसे मूढ़ताको प्राप्त विचार-शक्तिवाले जीवको आत्माकी नित्यता नहीं भासित होती, ऐसा प्रायः दिखाई देता है, और ऐसा होता है; यह बात यथार्थ ही है; क्योंकि अनित्य विषयमें आत्म-बुद्धि होनेके कारण उसे अपनी भी अनित्यता ही भासित होती है ।
विचारवानको आत्मा विचारवान लगती है। शून्यतासे चितवन करनेवालेको आत्मा शून्य लगती है, अनित्यतासे चितवन करनेवालेको आत्मा अनित्य लगती है; और नित्यतासे चितवन करनेवालेको आत्मा नित्य लगती है।
बंध मोक्ष संयोगथी, ज्यालग आत्म अमान; पण त्याग स्वभावनो, भाखे जिनभगवान ॥४॥ व बंधप्रसंगमा, ते निजपद अशान; पण जडता नहिं आत्मने, ए सिद्धांत प्रमाण ॥ ५ ॥ ग्रहे अरूपी रूपीने, ए अचरजनी बात, जीव बंधन जाणे नहीं, केवो जिनसिद्धांत ॥ ६ ॥ प्रथम देह दृष्टि हती, तेथी भास्यो देह; हवे दृष्टि ई आत्ममा, गयो देहथी नेह ॥ ७॥ जड चेतन संयोग आ, खाण अनादि अनंत; कोई न कर्ता तेहनो, भाले जिनभगवंत ॥ ८॥ मूळ द्रव्य उत्पन्न नहि, नहिं नाश पण तेम; अनुभवयी ते सिद्ध छे, भाखे जिनवर एम ॥९॥
होय तेहनो नाश नहिं, नहिं तेह नहिं होय; एक समय ते सौ समय, भेद अवस्था जोय ॥ १० | (२) परम पुरुष प्रभु सद्गुरु, परम शान सुख धाम; जेणे आप्युं भान निज, तेने सदा प्रणाम ॥ १ ॥