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पत्र १००, १०१] विविध पत्र आदि संग्रह-२३वाँ वर्ष
१९३ २. तू अपनी ( आत्म ) प्रशंसा नहीं करना; और यदि करेगा तो मैं समझता हूँ कि तू ही हलका है।
३. जिस तरह दूसरेको प्रिय लगे, उस तरहका अपना आचरण रखनेका प्रयत्न करना । यदि उसमें तुझे एकदम सिद्धि न मिले, अथवा विघ्न आवें, तो भी दृढ़ आग्रहसे धीमे धीमे उस क्रमपर अपनी निष्ठा लगाये रखना।
४. तू जिसके साथ व्यवहारमें सम्बद्ध दुआ हो, उसके साथ अमुक प्रकारसे बर्ताव करनेका निर्णय करके उससे कह दे । यदि उसे अनुकूल आवे तो ठीक है; अन्यथा वह जिस तरह कहे उस तरहका तू बर्ताव रखना । साथ ही यह भी कह देना कि मैं आपके कार्यमें ( जो मुझे सौंपा गया है उसमें ) किसी तरह भी अपनी निष्ठाके द्वारा आपको हानि नहीं पहुँचाऊँगा । आप मेरे विषयमें दूसरी कोई भी शंका न करना; मुझे इस व्यवहारके विषयमें अन्य किसी भी प्रकारका भाव नहीं है । मैं भी आपके द्वारा इस तरहका बर्ताव नहीं चाहता । इतना ही नहीं, परन्तु कुछ यदि मन, वचन और कायासे विपरीत आचरण हुआ हो तो उसके लिये मैं पश्चात्ताप करूँगा । वैसा न करनेके लिये मैं पहिलेसे ही बहुत सावधानी रक्तूंगा। आपका सौंपा हुआ काम करते हुए मैं निरभिमानी होकर रहूँगा । मेरी भूलके लिये यदि आप मुझे उपालंभ देंगे, तो मैं उसे सहन करूँगा । जहाँतक मेरा बस चलेगा, वहाँतक मैं स्वप्नमें भी आपके साथ द्वेष अथवा आपके विषयमें किसी भी तरहकी अयोग्य कल्पना नहीं करूँगा । यदि आपको किसी तरहकी भी शंका हो तो आप मुझे कहें, मैं आपका उपकार मानूंगा, और उसका सच्चा खुलासा करूँगा । यदि खुलासा न होगा, तो मैं चुप रहूँगा, परन्तु असत्य न बोलूंगा। केवल आपसे इतना ही चाहता हूँ कि किसी भी प्रकारसे आप मेरे निमित्तसे अशुभ योगमें प्रवृत्ति न करें। आप अपनी इच्छानुसार बर्ताव करें, इसमें मुझे कुछ भी अधिक कहनेकी ज़रूरत नहीं । मुझे केवल अपनी निवृत्तिश्रेणीमें प्रवृत्ति करने देवें, और इस कारण किसी प्रकारसे अपने अंतःकरणको छोटा न करें; और यदि छोटा करनेकी आपकी इच्छा ही हो तो मुझे अवश्य ही पहिलेसे कह दें। उस श्रेणीको निभानेकी मेरी इच्छा है इसलिये वैसा करनेके लिये जो कुछ करना होगा वह मैं कर लूंगा । जहाँतक बनेगा वहाँतक मैं आपको कभी कष्ट नहीं पहुँचाऊँगा,
और अन्तमें यदि यह निवृत्तिश्रेणी भी आपको अप्रिय होगी तो जैसे बनेगा वैसे सावधानीसे, आपके पाससे-आपको किसी भी तरहकी हानि पहुँचाये बिना यथाशक्ति लाभ पहुँचाकर, और इसके बाद भी हमेशाके लिये ऐसी इच्छा रखता हुआ-मैं चल दूंगा।
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बम्बई, वैशाख सुदी ३, १९४६
इस उपाधिमें पड़नेके बाद यदि मेरा लिंगदेहजन्य ज्ञान-दर्शन वैसा ही रहा हो-यथार्थ ही रहा हो-तो जुठाभाई आषाढ़ सुदी ९ के दिन गुरुवारकी रातमें समाधिशीत होकर इस क्षणिक जीवनका त्याग करके चले जायेंगे, ऐसा वह ज्ञान सूचित करता है।
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