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पत्र १०८, १०९, ११०] विविध पत्र आदि संग्रह-२३वाँ वर्ष
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बम्बई, १९४६ आषाढ़ जिस पुस्तकके पढ़नेसे उदासीनता, वैराग्य अथवा चित्तकी स्वस्थता होती हो, ऐसी कोई भी पुस्तक पढ़ना; ऐसी पुस्तक पढ़नेका विशेष परिचय रखना जिससे उसमें योग्यता प्राप्त हो ।
धर्म-कथा लिखनेके विषयमें जो लिखा, तो वह धार्मिक-कथा मुख्यरूपसे तो सत्संगमें ही आ जाती है । दुःषमकालके होनेसे इस कालमें सत्संगका माहात्म्य भी जीवके ध्यानमें नहीं आता; तो फिर कल्याण-मार्गके साधन कहाँसे हो सकते हैं ? इस बातकी तो बहुत बहुतसी क्रियाएँ आदि करनेवाले जीवको भी खबर हो, ऐसा मालूम नहीं होता।
त्यागने योग्य स्वच्छंदाचार आदि कारणोंमें तो जीव रुचिपूर्वक प्रवृत्ति कर रहा है और जिसका आराधन करना योग्य है, ऐसे आत्मस्वरूप सत्पुरुषोंके प्रति यह जीव मानो विमुखताका अथवा अविश्वासीपनेका आचरण कर रहा है । और ऐसे असत्संगियोंके सहवासमें किसी किसी मुमुक्षुको भी रहना पड़ता है। उन दुःखियाओंमें तुम और मुनि आदि भी किसी किसी अंशसे गिने जा सकते हैं। असत्संग और स्वेच्छासे आचरण न हो अथवा उनका अनुसरण न हो, ऐसे आचरणसे अंतत्ति रखनेका विचार रखे रहना ही इसका सुगम साधन है ।
बम्बई, १९४६ आषाढ पूर्वकर्मका उदय बहुत विचित्र है । अब जहाँसे जागे वहींसे प्रभात हुआ समझना चाहिये ।
तीव्र रससे और मंद रससे कर्मका बंध होता है । उसमें मुख्य हेतु राग-द्वेष ही हैं । उससे परिणाममें अधिक पश्चात्ताप होता है।
___ शुद्ध योगमें लगी हुई आत्मा अनारंभी है, अशुद्ध योगमें लगी हुई आत्मा आरंभी है; यह वाक्य वीरकी भगवतीका है। इसपर मनन करना।
परस्पर ऐसे होनेसे धर्मको भूली हुई आत्माको स्मृतिमें योगपदका स्मरण होता है। कर्मकी बहुलताके योगसे एक तो पंचमकालमें उत्पन्न हुए, परन्तु किसी एक शुभ उदयसे जो योग मिला है वैसे मर्मबोधका योग बहुत ही थोड़ी आत्माओंको मिलता है; और वह रुचिकर होना बहुत ही कठिन है। ऐसा योग केवल सत्पुरुषोंकी कृपादृष्टिमें है; यदि अल्पकर्मका योग होगा तो ही यह मिल सकेगा। इसमें संशय नहीं कि जिस पुरुषको साधन मिले हों और उस पुरुषको शुभोदय भी हो तो यह निश्चयसे मिल सकता है; यदि फिर भी न मिले तो इसमें बहुल कर्मका ही दोष समझना चाहिये !
बम्बई, १९४६ आषाद धर्मध्यान लक्षपूर्वक हो, यही आत्म-हितका रास्ता है । चित्तका संकल्प-विकल्पोंसे रहित होना, यह महावीरका मार्ग है । अलिप्तभावमें रहना, यह विवेकीका कर्तव्य है।