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पत्र १२८,१२९,१३०,१३१ ] विविध पत्र आदि संग्रह-२३वाँ वर्ष
२०९ १२८ ववाणीआ, द्वितीय भाद्र. वदी १३, १९४६ तुम तथा और जो जो दूसरे भाई मुझसे कुछ आत्म-लाभकी इच्छा करते हो, वे सब आत्मलाभको पाओ, यही मेरी अंतःकरणसे इच्छा है; तो भी उस लाभके प्रदान करनेकी यथायोग्य पात्रतामें मुझे अभी कुछ आवरण है; और उस लाभको लेनेकी इच्छा करनेवालोंकी योग्यताकी भी मुझे अनेक तरहसे न्यूनता मालूम हुआ करती है। इसलिये जबतक ये दोनों योग परिपक्व न हो जॉय, तबतक इस सिद्धि में विलंब है, ऐसी मेरी मान्यता है । बार बार अनुकंपा आ जाती है, परन्तु निरुपायताके सामने क्या करूँ ! अपनी किसी न्यूनताको पूर्णता कैसे कह दूँ !
___ इसके ऊपरसे मेरी ऐसी इच्छा रहा करती है कि हालमें अब तो जिस तरह तुम सब योग्यतामें आ सको उस तरहका कुछ निवेदन करता रहूँ, और जो कोई खुलासा पूंछो उसे बुद्धि-अनुसार स्पष्ट करता रहूँ, अन्यथा योग्यती प्राप्त करते रहो, इसी बातको बार बार सूचित करता रहूँ।
१२९ ववाणीआ, द्वि. भाद्रपद वदी १३ सोम. १९४६ चैतन्यका निरंतर अविच्छिन्न अनुभव प्रिय है; यही चाहिये भी, इसके सिवाय दूसरी कुछ भी इच्छा नहीं रहती; यदि रहती हो तो भी उसे रखनेकी इच्छा नहीं । बस एक 'तू ही तू ' यही एक अस्खलित प्रवाह निरन्तर चाहिये । अधिक क्या कहा जाय ? वह लिखनेसे लिखा नहीं जाता, और कहनेसे कहा नहीं जाता; वह केवल ज्ञानके गम्य है; अथवा यह श्रेणी श्रेणीसे समझमें आ सकता है। बाकी तो सब कुछ अव्यक्त ही है।
इसलिये जिस निस्पृह दशाका ही रटन है, उसके मिलनेपर-इस कल्पितको भूल जानेपर ही-छुटकारा है।
१३० ववाणीआ, आसोज सुदी ५ शनि. १९४६ ऊंच नीचनो अंतर नथी, समज्या ते पाम्या सद्ती तीर्थंकरदेवने राग करनेका निषेध किया है, अर्थात् जबतक राग रहता है तबतक मोक्ष नहीं होती; तो फिर मुझ संबंधी राग तुम सबको हितकारक कैसे होगा !
लिखनेवाला अव्यक्तदशा.
१३१ ववाणीआ, आसोज सुदी ६ रवि. १९४६ आज्ञामें ही तन्मय हुए बिना परमार्थके मार्गकी प्राप्ति बहुत ही दुर्लभ है। इसके लिये तुम क्या उपाय करोगे, अथवा तुमने क्या उपाय सोचा है !
अधिक क्या ! इस समय इतना ही बहुत है।
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