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श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र २०३, २०४, २०५
बम्बई, चैत्र वदी ३ रवि. १९४७ उस पूर्णपदकी ज्ञानी लोग परम प्रेमसे उपासना करते है लगभग चार दिन पहले आपका पत्र मिला । परमस्वरूपके अनुग्रहसे यहाँ समाधि है । सदृतियाँ रखनेकी आपकी इच्छा रहती है-यह पढ़कर बारम्बार आनन्द होता है । चित्तकी सरलताका वैराग्य
और 'सत्' प्राप्त होनेकी अभिलाषा-ये प्राप्त होना परम दुर्लभ है; और उसकी प्राप्तिमें परम कारणरूप 'सत्संग' का प्राप्त होना तो और भी परम दुर्लभ है। महान् पुरुषोंने इस कालको कठिन काल कहा है, उसका मुख्य कारण तो यही है कि जीवको ‘सत्संग' का योग मिलना बहुत कठिन है,
और ऐसा होनेसे ही कालको भी कठिन कहा है। चौदह राजू लोक मायामय अग्निसे प्रज्ज्वलित है। उस मायामें जीवकी बुद्धि रच-पच रही है, और उससे जीव भी उस त्रिविध तापरूपी अग्निसे जला करता है, उसके लिये परमकारुण्य मूर्तिका उपदेश ही परम शीतल जल है; तथापि जीवको चारों ओरसे अपूर्ण पुण्यके कारण उसकी प्राप्ति होना अत्यन्त कठिन हो गई है।
परन्तु इसी वस्तुका चितवन रखना । 'सत्' में प्रीति, साक्षात् 'सत्' रूप संतमें प्रीति, और उसके मार्गकी अभिलाषा–यही निरन्तर स्मरण रखने योग्य है; और इनके स्मरण रहनेमें वैराग्य आदि चरित्रवाली पुस्तकें, वैराग्ययुक्त सरल चित्तवाले मनुष्योंका संग और अपनी चित्त-शुद्धि-ये सुन्दर कारण हैं। इन्हींकी प्राप्तिकी रटन रखना कल्याणकारक है। यहाँ समाधि है।
२०४ बम्बई, चैत्र वदी ७ गुरु. १९४७
आप्यु सौने ते अक्षरधामरे यद्यपि काल बहुत उपाधि संयुक्त जाता है, किन्तु ईश्वरेच्छानुसार चलना श्रेयस्कर और योग्य है, इसलिये जैसे चल रहा है, वैसे चाहे उपाधि हो तो भी ठीक, और न हो तो भी ठीक; हमें तो दोनों समान ही हैं।
ऐसा तो समझमें आता है कि भेदका भेद दूर होनेपर ही वास्तविक तस्त्र समझमें आता है। परम अभेदरूप 'सत्' सर्वत्र है।
२०५ बम्बई, चैत्र वदी १४ गुरु १९४७ जिसे लगी है, उसीको ही लगी है, और उसीने उसे जानी है, और वही "पी पी" पुकारता फिरता है। यह ब्राह्मी वेदना कैसे कही जाय ! जहाँ कि वाणीका भी प्रवेश नहीं है। अधिक क्या कहें ! जिसे लगी है उसीको ही लगी है। उसीके चरणकी शरण संगसे मिलती है, और जब मिल जाती है तभी छुटकारा होता है। इसके बिना दूसरा सुगम मोक्षमार्ग है ही नहीं; तथापि कोई प्रयत्न नहीं करता। मोह बड़ा बलवान है।