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पत्र २१७] विविध पत्र आदि संग्रह-२४वाँ वर्ष
२५५ प्रवर्तते हैं; व्रत नियमका भी कोई नियम नहीं रक्खा; भेदभावका कोई भी प्रसंग नहीं; हमने अपनेसे विमुख जगत्में कुछ भी माना नहीं; हमारे सन्मुख ऐसे सत्संगीके न मिलनेसे खेद रहा करता है संपत्ति भरपूर है, इसलिये संपत्तिकी इच्छा नहीं; शब्द आदि अनुभव किये हुए विषय स्मृतिमें आ जानेके कारण-अथवा चाहे उसे ईश्वरेच्छा कहो-परन्तु उसकी भी अब इच्छा नहीं रही; अपनी इच्छासे ही थोड़ी ही प्रवृत्ति की जाती है; हरिकी इच्छाका क्रम जैसे चलाता है वैसे ही चलते चले जाते हैं। हृदय प्रायः शून्य जैसा हो गया है; पाँचों इन्द्रियाँ शून्यरूपसे ही प्रवृत्ति करती हैं; नय-प्रमाण वगैरह शास्त्र-भेद याद नहीं आते; कुछ भी बाँचनेमें चित्त नहीं लगता; खानेकी, पीनेकी, बैठनेकी, सोनेकी, चलनेकी, और बोलनेकी वृत्तियाँ सब अपनी अपनी इच्छानुसार होती रहती हैं, तथा हम अपने स्वाधीन हैं या नहीं, इसका भी यथायोग्य भान नहीं रहा है।
इस प्रकार सब तरहसे विचित्र उदासीनता आ जानेसे चाहे जैसी प्रवृत्ति हो जाया करती है। एक प्रकारसे पूर्ण पागलपन है; एक प्रकारसे उस पागलपनको कुछ छिपाकर रखते हैं, और जितनी मात्रामें उसे छिपाकर रखते हैं उतनी ही हानि है। योग्यरूपसे प्रवृत्ति हो रही है अथवा अयोग्य रूपसे, इसका कुछ भी हिसाब नहीं रक्खा। आदि-पुरुषमें एक अखंड प्रेमके सिवाय दूसरे मोक्ष आदि पदार्थोकी भी आकांक्षाका नाश हो गया है। इतना सब होनेपर भी संतोषजनक उदासीनता नहीं आई, ऐसा मानते हैं । अखंड प्रेमका प्रवाह तो नशेके प्रवाह जैसा प्रवाहित होना चाहिये, परन्तु वैसा प्रवाहित नहीं हो रहा, ऐसा हम जान रहे हैं। ऐसा करनेसे वह अखंड नशेका प्रवाह प्रवाहित होगा, ऐसा निश्चयरूपसे समझते हैं। परन्तु उसे करनेमें काल कारणभूत हो गया है; और इन सबका दोष हमपर है अथवा हरिपर, उसका ठीक ठीक निश्चय नहीं किया जा सकता। इतनी अधिक उदासीनता होनेपर भी व्यापार करते हैं; लेते हैं, देते हैं, लिखते हैं; बाँचते हैं; निभाते जा रहे हैं; खेद पाते हैं। और हँसते भी हैं, जिसका ठिकाना नहीं-ऐसी हमारी दशा है; और उसका कारण केवल यही है कि जबतक हरिकी सुखद इच्छा नहीं मानी तबतक खेद मिटनेवाला नहीं, यह बात समझमें आ रही है, समझ भी रहे हैं, और समझेंगे भी, परन्तु सर्वत्र हरि ही कारणरूप है।
जिस मुनिको आप समझाना चाहते हो, वह हालमें योग्य है या नहीं, सो हम नहीं जानते; क्योंकि हमारी दशा हालमें मंद-योग्यको लाभ करनेवाली नहीं; हम ऐसी जंजालको हालमें नहीं चाहते; इसे रक्खी ही नहीं; और उन सबका कारबार कैसा चलता है, इसका स्मरण भी नहीं है।
ऐसा होनेपर भी हमें इन सबकी अनुकंपा आया करती है । उनसे अथवा किसी भी प्राणीसे हमने मनसे मित्रभाव नहीं रक्खा, और रक्खा जा सकेगा भी नहीं।
भक्तिवाली पुस्तकें कभी कभी बाँचते हैं। परन्तु जो सब कुछ करते हैं वह बिना ठिकानेकी दशासे ही करते हैं।
प्रभुकी परम कृपा है। हमें किसीसे भी मित्रभाव नहीं रहा है। किसीके भी प्रति दोष-बद्धि नहीं आती; मुनिके विषयमें हमें कोई हलका विचार नहीं; परन्तु वे ऐसी प्रवृत्तिमें पड़े हैं, जिसमें हरिकी प्राप्ति उन्हें न हो । अकेला बीज-बान ही उनका कल्याण कर सके, ऐसी इनकी और दूसरे