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पत्र १४४, २४५] विविध पत्र आदि संग्रह-२३वाँ वर्ष
उनको पुरुषके रूपमें देखा। उनको जब-चैतन्यात्मक स्वरूपमें देखा।
१४४ बम्बई, कार्तिक सुदी ५ सोम. १९४७ - भगवान् परिपूर्ण-सर्वगुणसंपन-कहे जाते हैं। तो भी इनमें भी दोष कोई कम नहीं हैं! चित्र-विचित्र करना ही इनकी लीला है। अधिक क्या कहें !
समस्त समर्थ पुरुष अपने आपको प्राप्त हुए ज्ञानको ही कह गये हैं । इस ज्ञानकी दिन प्रतिदिन इस आत्माको भी विशेषता होती जा रही है । मैं समझता हूँ कि केवलज्ञान प्राप्त करनेतककी मेहनत करना व्यर्थ तो नहीं जायगा । मोक्षकी हमें कोई आवश्यकता नहीं । निःशंकपनेकी, निर्भयपनेकी, निर्मोहपनेकी, और निस्पृहपनेकी जरूरत थी, वह बहुत कुछ प्राप्त हुई मालूम होती है और उसे पूर्ण अंशमें प्राप्त करनेकी गुप्त रहे हुए करुणासागरकी कृपा होगी, ऐसी आशा रहती है। फिर भी इससे भी अधिक अलौकिक दशाकी प्राप्ति होनेकी इच्छा रहा करती है । वहाँ विशेष क्या कहें !
__आंतर-ध्वनिमें कमी नहीं; परन्तु गाड़ी घोडेकी उपाधि श्रवणका थोड़ा ही मुख देती है। यहाँ निवृत्तिके सिवाय दूसरा सभी कुछ मालूम होता है । जगत्को और जगत्की लीलाको बैठे बैठे मुफ्तमें ही देख रहे हैं।
१४५ बम्बई, कार्तिक सुदी ५ सोम. १९४७ सत्पुरुषके एक एक वाक्यमें, एक एक शब्दमें, अनंत आगम भरे हुए है, यह बात कैसे होगी ?
नीचेके वाक्य मैंने असंख्य सत्पुरुषोंकी सम्मतिसे प्रत्येक मुमुक्षुओंके लिये मंगलरूप माने हैंमोक्षके सर्वोत्तम कारणरूप माने हैं।
१. चाहे कभी ही क्यों न हो किन्तु मायामय सुखकी सब प्रकारकी वाँछाको छोड़े बिना कभी भी छुटकारा होनेवाला नहीं, इसलिये जबसे यह वाक्य सुना है उसी समयसे उस क्रमका अभ्यास करना ही योग्य है, ऐसा समझ लेना चाहिये ।
२. किसी भी प्रकारसे सद्दकी खोज करना; खोज करके उसके प्रति तन, मन, वचन और आत्मासे अर्पण-बुद्धि रखना; उसीकी आज्ञाका सब प्रकारसे शंकारहित होकर आराधन करना; और तो ही सब मायामय वासनाका अभाव होगा, ऐसा समझना ।।
३. अनादिकालके परिभ्रमणमें अनन्तबार शाख-श्रवण, अनन्तबार विद्याभ्यास, अनन्तबार जिन-दीक्षा, अनन्तबार आचार्यपना प्राप्त हुआ है, केवल एक सत् ही नहीं मिला; सत् ही नहीं सुना, सत्का ही श्रद्धान नहीं किया और इसके मिलनेपर, इसके सुननेपर, तथा इसकी श्रद्धा करनेपर ही मात्मामेंसे छठनेकी बातका भणकार होगा।
१. मोक्षका मार्ग बाहर नहीं, किन्तु आत्मामें है।