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श्रीमद् राजचन्द्र
[पत्र १६८, १६९ अप्रमत्त रहना चाहिये, तभी मार्गकी प्राप्ति होकर अंधापन हट सकता है । अनादिकालसे जीव उलटे मार्गपर चल रहा है। यद्यपि उसने जप, तप, शास्त्राध्ययन वगैरे अनन्तबार किये हैं, तथापि जो कुछ करना आवश्यक था वह उसने नहीं किया, जो कि हमने पहिले ही कह दिया है।
सूयगडांगसूत्रमें जहाँ भगवान् ऋषभदेवजीने अपने अहानवें पुत्रोंको उपदेश किया है, और उन्हें मोक्ष-मार्गपर चढ़ाया है, वहाँ इस तरहका उपदेश दिया है:-हे आयुष्मानों ! इस जीवने एक बात छोड़कर सब कुछ किया है; तो बताओ कि वह एक बात क्या है ? तो निश्चयपूर्वक कहते हैं कि सत्पुरुषका कहा हुआ वचन-उसका उपदेश; इसे इस जीवने नहीं सुना, और ठीक रीतिसे नहीं धारण किया; और हमने उसीको मुनियोंका सामायिक ( आत्म-स्वरूपकी प्राप्ति ) कहा है।
सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामीको उपदेश देते हैं कि, जिसने समस्त जगत्का दर्शन किया है, ऐसे महावीरभगवान्ने हमें इस तरह कहा है:-गुरुके आधीन होकर आचरण करनेवाले ऐसे अनन्त पुरुषोंने मार्ग पाकर मोक्ष प्राप्त किया है। एक इसी जगह नहीं परन्तु सब जगह और सब शास्त्रोंमें यही बात कहनेका उद्देश है।
___ आणाए धम्मो आणाए तवो आज्ञाका आराधन ही धर्म है; आज्ञाका आराधन ही तप हैयह आशय जीवको समझमें नहीं आया, इसके कारणोंमेंसे प्रधान कारण स्वच्छंद है।
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बम्बई, पौष १९४७ सत्स्वरूपको अभेदरूपसे अनन्य भक्तिसे नमस्कार जिसको मार्गकी इच्छा उत्पन्न हुई है, उसे सब विकल्पोंको छोड़कर केवल यही एक विकल्प फिर फिरसे स्मरण करना आवश्यक है:
"अनंतकालसे जीव परिभ्रमण कर रहा है, फिर भी उसकी निवृत्ति क्यों नहीं होती है और वह निवृत्ति क्या करनेसे हो सकती है !
इस वाक्यमें अनन्त अर्थ समाविष्ट हैं; तथा इस वाक्यमें उपरोक्त चितवन किये बिना और उसके लिये दृढ़ होकर तन्मय हुए बिना मार्गकी दिशाका किंचित् भी भान नहीं होता, पूर्वमें नहीं हुआ, और भविष्यकालमें भी नहीं होगा। हमने तो ऐसे ही जाना है, इसलिये तुम सबको भी इसीकी खोज करना है। फिर उसके बाद ही, दूसरा क्या जाननेकी जरूरत है, उस बातका पता चलता है ।
१६९ बम्बई, माघ सुदी ७ रवि. १९४७ जिसे मु- पनेसे रहना पड़ता है ऐसे जिज्ञासु !
जीवके दो बड़े बंधन हैं-एक स्वच्छंद और दूसरा प्रतिबंध । जिसकी स्वच्छंदता हटानेकी इच्छा है, उसे ज्ञानीकी आज्ञाका आराधन करना चाहिये; तथा जिसकी प्रतिबंध हटानेकी इच्छा है, उसे सर्वसंगका त्यागी होना चाहिये । यदि ऐसा न होगा तो बंधनका नाश न होगा। जिसका स्वच्छंद नष्ट हो.