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१९६, १९७, १९८] विविध पत्र आदि संग्रह-२४वाँ वर्ष ।
२४५ लोक-लज्जाकी उपेक्षा करके सत्संगका परिचय करना ही श्रेयस्कर है । किसी भी बड़े कारणकी सिद्धि में लोक-लज्जाका तो सब प्रकारसे त्याग करना ही पड़ता है। सामान्यतः सत्संगका लोक-समुदायमें तिरस्कार नहीं है, जिससे लोक-लज्जा दुःखदायक नहीं होती; केवल चित्तमें सत्संगके लाभका विचार करके निरंतर अभ्यास करते रहें तो परमार्थविषयक दृढ़ता होती है।
१९६ बम्बई, चैत्र सुदी ५ सोम. १९४७ एक पत्र मिला, जिसमें कि 'बहुतसे जीवोंमें योग्यता तो है परन्तु मार्ग बतानेवाला कोई नहीं, इत्यादि बात लिखी है। इस विषयमें पहिले आपको बहुत करके खुलासा किया था, यद्यपि वह कुछ गूढ़ ही था; तथापि आपमें अत्यधिक परमार्थकी उत्सुकता है, इस कारण वह खुलासा आपको विस्मरण हो जाय, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है।
फिर भी आपको स्मरण रहनेके लिये इतना लिखता हूँ कि जबतक ईश्वरेच्छा न होगी तबतक हमसे कुछ भी न हो सकेगा । एक तुच्छ तृणके दो टुकड़े करनेकी भी सत्ता हममें नहीं है । अधिक क्या कहें !
___ आप तो करुणामय हैं। फिर भी आप हमारी करुणाके संबंधमें क्यों लक्ष नहीं देते, और ईश्वरको क्यों नहीं समझाते
१९७ बम्बई, चैत्र सुदी ७ बुध. १९४७. महात्मा कबीरजी तथा नरसी मेहताकी भक्ति अनन्य, अलौकिक, अद्भुत, और सर्वोत्कृष्ट थी; ऐसा होनेपर भी वह निस्पृह थी । ऐसी दुखी स्थिति होनेपर भी उन्होंने स्वप्नमें भी आजीविकाके लिये-व्यवहारके लिये परमेश्वरके प्रति दीनता प्रकट नहीं की । यद्यपि दीनता प्रकट किये बिना ईश्वरेच्छानुसार व्यवहार चलता गया है, तथापि उनकी दरिद्रावस्था आजतक जगत्प्रसिद्ध ही है, और यही उनका सबल माहात्म्य है । परमात्माने इनका 'परचा' पूरा किया है, और वह भी इन भक्तोंकी इच्छाके विरुद्ध जाकर किया है। क्योंकि वैसी भक्तोंकी इच्छा ही नहीं होती, और यदि ऐसी इच्छा हो तो उन्हें भक्तिके रहस्यकी प्राप्ति भी न हो । आप भले ही हज़ारों बातें लिखें परन्तु जबतक आप निस्पृही नहीं है (अथवा न हों) तबतक सब विडंबना ही है ।
१९८ बम्बई, चैत्र सुदी ९ शुक्र. १९४७ परेच्छानुचारीके शब्दभेद नहीं होता (१) मायाका प्रपंच प्रतिक्षण बाधा करता है। उस प्रपंचके तापकी निवृत्ति मानों किसी कल्पद्रुमकी छायासे होती है, अथवा तो केवल दशासे होती है। इन दोनोंमें भी कल्पद्रुमकी छाया प्रशस्त है। इसके सिवाय तापकी निवृत्ति नहीं होती; और इस कल्पद्रुमको वास्तविकरूपसे पहिचान