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पत्र १९३, ] विविध पत्र आदि संग्रह-२४वाँ वर्ष
२४३ शक्ति तो बहुत ही अधिक शून्य हो गई है। हाँ, वाणी प्रसंग पाकर अब भी कुछ कार्य कर सकती है, और उससे आशा रहती है कि समागम होनेपर ज़रूर ईश्वर कृपा करेंगे।
वाणी भी जैसी पहिले क्रमपूर्वक बात कर सकती थी, वैसी अब नहीं मालूम होती । लेखनशक्तिके शून्यता पाने जैसी हो जानेका एक कारण यह भी है कि चित्तमें उदित हुई बात बहुत नयोंसे युक्त होती है, और वे सब नय लिखनेमें नहीं आ सकते; जिससे चित्त विरक्त हो जाता है। .. आपने एक बार भक्तिके विषयमें प्रश्न किया था। इस संबंधमें अधिक बात तो समागम होनेपर ही हो सकती है; और बहुत करके सब बातोंके लिये समागम ही ठीक मालूम होता है, तो भी बहुत ही संक्षिप्त उत्तर लिखता हूँ।
परमात्मा और आत्माका एक रूप हो जाना (!) वह पराभक्तिकी अन्तिम हद है। एक ऐसी ही तल्लीनताका रहना ही पराभक्ति है। परम महात्मा गोपांगनायें महात्मा वासुदेवकी भक्तिमें इसी प्रकारसे लीन रहीं थीं। परमात्माको निरंजन और निर्देहरूपसे चितवन करनेपर जीवको ऐसी तल्लीनता प्राप्त करना अति कठिन है, इसलिये जिसको परमात्माका साक्षात्कार हुआ है, ऐसा देहधारी परमात्मा उस पराभक्तिका एकतम कारण है । उस ज्ञानी पुरुषके सर्व चरित्रमें ऐक्यभावका लक्ष होनेसे उसके हृदयमें विराजमान परमात्माका ऐक्यभाव होता है, और यही पराभक्ति है। ज्ञानी पुरुष
और परमात्मामें बिलकुल भी अन्तर नहीं है; और जो कोई अन्तर मानता है, उसे मार्गकी प्राप्ति होना अत्यन्त कठिन है । ज्ञानी तो परमात्मा ही है, और उसकी पहिचानके बिना परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती, इसीलिये सब प्रकारसे भक्ति करने योग्य ऐसी देहधारी दिव्यमूर्ति-ज्ञानीरूप परमात्माकी को नमस्कार आदि भक्तिसे लगाकर पराभक्तिके अंततक एक तल्लीनतासे आराधन करना, ऐसा शास्त्रका लक्ष है । परमात्मा ही इस देहधारीरूपसे उत्पन्न हुआ है, ऐसी ही ज्ञानी पुरुषके प्रति जीवको बुद्धि होनेपर भक्ति उदित होती है, और वह भक्ति क्रम क्रमसे पराभक्तिरूप हो जाती है । इस विषयमें श्रीमद्भागवतमें, भगवद्गीतामें बहुतसे भेद बता करके इसी लक्षकी प्रशंसा की है। अधिक क्या कहें ? ज्ञानी-तीर्थंकरदेवमें लक्ष होनेके लिये जैनधर्ममें भी पंचपरमेष्ठी मंत्रमें " नमो अरिहंताणं " पदके बाद ही सिद्धको नमस्कार किया है। यही भक्तिके बारेमें यह सूचित करता है कि प्रथम ज्ञानी पुरुषकी भाक्त करो; यही परमात्माकी प्राप्ति और भक्तिका निदान है।
दूसरा एक प्रश्न ( एकसे अधिक बार ) आपने ऐसे लिखा था कि व्यवहारमें व्यापार आदिके संबंधमें इस वर्ष जैसा चाहिये वैसा लाभ नहीं दीखता; और कठिनाई रहा करती है । जिसको परमात्माकी भक्ति ही प्रिय है ऐसे पुरुषको ऐसी कठिनाई न हो तो फिर उसे सच्चे परमात्माकी ही भक्ति नहीं है, ऐसा समझना चाहिये; अथवा जान बूझकर परमात्माकी इच्छारूप मायाने ऐसी कठिनाईयोंको भेजनेके कार्यका विस्मरण किया समझना चाहिये । जनक विदेही और महात्मा कृष्णके विषयमें मायाका विस्मरण दुआ मालूम होता है; तथापि ऐसा नहीं है । जनक विदेहीकी कठिनाईके संबंध यहाँ कहनेका मौका नहीं है, क्योंकि वह कठिनाई अप्रगट कठिनाई है, और महात्मा कृष्णकी संकटरूप कठिनाई प्रगट ही है । इसी तरह उनकी अष्टसिद्धि और नवनिधि भी प्रसिद्ध ही हैं। तथापि कठिनाई तो थी ही और होनी भी चाहिये । यह कठिनाई मायाकी है, और