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पत्र १८८, १८९, १९०, १९१] विविध पत्र आदि संग्रह-२४वाँ वर्ष ।
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भी जाना जा सकता है, और वह यथार्थ ही है; तथापि उनकी गतिके संबंधमें जो भेद बताया गया है, उसका कुछ जुदा ही कारण है।
___ स्वर्ग, नरक आदिकी प्रतीतिका उपाय योग-मार्ग है । उसमें भी जिनको दूरदेशी सिद्धि प्राप्त होती है, वह उसकी प्रतीतिके लिये योग्य है । यह प्रतीति सर्वकालमें प्राणियोंको दुर्लभ ही रहती है। ज्ञान-मार्गमें इस विशेष बातका उल्लेख नहीं किया, परन्तु ये सब हैं ज़रूर ।
जितने स्थानमें मोक्ष बताई गई है वह सत्य है । कर्मसे, भ्रांतिसे, अथवा मायासे छूटनेका नाम ही मोक्ष है; यही मोक्ष शब्दकी व्याख्या है।
जीव एक भी है, और अनेक भी है।
१८८ बम्बई, फाल्गुन वदी १ गुरु. १९४७ " एक देखिये जानिये" इस दोहेके विषयमें आपने लिखा है । इस दोहेको हमने आपको निःशंकताकी दृढ़ता होनेके लिये नहीं लिखा था; परन्तु यह दोहा स्वाभाविक तौरसे हमें प्रशस्त लगा इसलिये इसे आपको लिख भेजा था । ऐसी लौ तो गोपांगनाओंमें थी। श्रीमद्भागवतमें महात्मा व्यासने वासुदेव भगवान्के प्रति गोपियोंकी प्रेम-भक्तिका वर्णन किया है, वह परम आल्हादक और आश्चर्यकारक है।
नारद-भक्तिसूत्र नामका एक छोटासा शिक्षाशास्त्र महर्षि नारदजीका रचा हुआ है । उसमें प्रेम-भक्तिका सर्वोत्कृष्ट प्रतिपादन किया गया है ।
१८९ बम्बई, फाल्गुन वदी ८ बुध. १९४७ श्रीमद्भागवत परमभक्तिरूप ही है । इसमें जो जो वर्णन किया गया है, वह सब केवल लक्षको सूचित करनेके लिये है।
यदि मुनिसे सर्वव्यापक अधिष्ठान-आत्माके विषयमें पूँछा जाय तो उनसे लक्षरूप कुछ भी उत्तर नहीं मिल सकता; और कल्पित उत्तरसे कार्य-सिद्धि नहीं होती। आपको ज्योतिष आदिकी भी हालमें इच्छा नहीं करनी चाहिये, क्योंकि वह कल्पित है; और कल्पितपर हमारा कुछ भी लक्ष नहीं है।
१९० बम्बई, फाल्गुन वदी ८ बुध. १९४७ ... परमात्माकी कृपासे परस्पर समागम लाभ हो, ऐसी मेरी इच्छा है।
यहाँ उपाधियोग विशेष रहता है, तथापि समाधिमें योगकी अप्रियता कभी न हो, ऐसा ईश्वरका अनुग्रह रहेगा, ऐसा मालूम होता है।
१९१ बम्बई, फाल्गुन वदी १० शनि. १९४७ आज जन्मकुंडलीके साथ आपका पत्र मिला। जन्मकुंडलीके संबंधमें अभी उत्तर नहीं मिल